________________
१९६
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) उदा. 'षस्च गतौ' । यहाँ 'षः सोऽष्ट्यैष्ठिवष्वस्कः' २/३/९८ से 'ष' का 'स' होगा और सस्य शषौ' १/३/६१ से 'स्च्' के 'स्' का 'श्' होगा, अर्थात् धातु ‘षस्च्' में से 'सश्च' होगा, बाद में 'यङ्' प्रत्यय होकर, उसका लोप होने पर 'सासश्च' होगा । ह्यस्तनी का 'दिव्' प्रत्यय होने पर, उसका 'व्यञ्जनाद्दे.'....४/३/७८ से लोप होगा और 'अड् धातोरादि'....४/४/२९ से अट् आगम होगा और 'असासश्च' होगा । इसमें स्थित 'श्', 'स्' का आदेश होने से उसका 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' २/ १/८८ से लोप होगा और 'चजः कगम्' २/१/८६ से 'च' का 'क्' होकर, ‘असासक्' रुप सिद्ध होगा।
'स्' के आदेश 'श्' को ही 'स्' सम्बन्धित कार्य होता है किन्तु स्वाभाविक 'श्' को 'स्' सम्बन्धित कार्य नहीं होता है । उदा. 'भवान् शेते ।' यहाँ 'श' का 'ड्नः सः'....१/३/१८ से 'त्स' या 'त्श' नहीं होगा।
इस न्याय का ज्ञापन 'ड्नः सः त्सोऽश्चः' १/३/१८ में 'श्च' का वर्जन किया है, उससे होता है । वह भवान्श्च्योतति' इत्यादि में 'श' का 'त्स' न हो इसलिए (श्च का वर्जन किया) है । यदि यह न्याय न होता तो 'श' का 'त्स' होने की प्राप्ति ही नहीं है क्योंकि 'ड्नः सः त्सोऽश्चः' १/३/ १८ सूत्र में 'सः' कहा है, जबकि 'भवान्श्च्योतति' इत्यादि में 'श' है, वैसा होने पर भी यहाँ 'श्च' का वर्जन किया, वह इस न्याय का ज्ञापन करता है।
वस्तुतः 'श्च' के वर्जन से 'सकारापदिष्टं कार्यं शकारस्यापि' खंड/भाग का ज्ञापन होता है किन्तु 'तदादेशस्य' के साथ संपूर्ण न्याय का ज्ञापन नहीं होता है क्योंकि 'श्च' में जो 'श्' है, वह अविशिष्ट है अर्थात् वह 'स' के आदेश रुप ही 'श' है ऐसा नहीं है । अत: 'तदादेशस्य' अंश का दूसरा ज्ञापक खोजना चाहिए, इसी शंका का प्रत्युत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यही ज्ञापक पूर्ण न्याय का ज्ञापन कराने में समर्थ होने से, अन्य ज्ञापक खोजने की आवश्यकता नहीं है। वह इस प्रकार है :- 'अश्च' के द्वारा 'श्च्योतति' इत्यादि सम्बन्धी 'श्च' का वर्जन किया है, किन्तु अन्य किसी 'श्च' का वर्जन नहीं होता है क्योंकि 'श्च्योतति' इत्यादि प्रयोग को छोडकर कहीं भी 'श्च' प्राप्त नहीं है और वही 'श्च' में स्थित 'श', 'स' का ही आदेश है क्योंकि वह 'श', 'सस्य शषौ' १/३/ ६१ सूत्र से हुआ है । अतः 'श्च' में स्थित सकार के आदेशरुप 'श' कार को सकार सम्बन्धित कार्य का निषेध 'श्च' के वर्जन से होता है । अतः 'अश्च' कहने से पूर्ण न्याय का ज्ञापन होता है।
इस न्याय की चञ्चलता/अनित्यता दिखायी नहीं पड़ती है।
इस न्याय के ज्ञापक 'अश्वः' के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरि कहते हैं कि 'अश्चः' कहने से लक्षणा से 'श्च्योतति' इत्यादि के शकार का वर्जन होता है, तथापि, शब्दतः उसका वर्जन नहीं होता है अतः 'अश्चः', सकारापविष्ट कार्य शकारस्यापि' भाग का ज्ञापन कर सकता है, किन्तु 'तदादेशस्य' भाग का ज्ञापन कर सकने में समर्थ नहीं है। इसका कारण बताते हुए, वे कहते हैं कि 'अश्वः' शब्द द्वारा उपस्थापित जो अर्थ है, उसी अर्थ का ही 'अश्वः' द्वारा ज्ञापन करने में औचित्य है किन्तु, उसी अर्थ के अर्थ का अर्थात् परंपरित प्रयोजन (अर्थ) का ज्ञापन करने में, वह समर्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org