SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६९) १८९ इस न्याय का ज्ञापक, 'गायति' स्वरूपवाले 'गी' धातु से 'टक्' का विधान करनेवाल 'गायोऽनुपसर्गात् टक्' ५/१/७४ में उपसर्ग वर्जन है । वह इस प्रकार है । जैसे 'साम गायति इति सामगी स्त्री' में 'साम' से युक्त 'गायति' से 'टक्' हुआ, वैसे 'साम संगायति इति सामसंगायी' में उपसर्ग सहित 'गायति' से 'टक्' न हो, किन्तु 'कर्मणोऽण्' ५/१/७२ से 'अण्' ही हो, इसका ज्ञापन करने के लिए 'अनुपसर्गात्' कहा है । यदि यह न्याय न होता तो 'गायष्टक्' इतना ही सूत्र बनाया होता तो 'सामसंगायी' में 'टक्' की प्राप्ति ही नहीं है क्योंकि 'साम' और 'गी' धातु के बीच व्यवधान है। अतः 'गायति' धातु कर्म से पर नहीं माना जायेगा । अतः उपसर्ग का वर्जन किया, वह व्यर्थ हुआ और वह व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि इस न्याय के कारण कर्म और धातु के बीच उपसर्ग का व्यवधान माना जाता नहीं है और अतः जैसे 'सामगी' में 'टक्' प्रत्यय हुआ वैसे 'सामसंगायी' में 'टक्' प्रत्यय होकर सामसंगी' ऐसा अनिष्ट रूप होगा ऐसी आशंका से ही 'अनुपसर्गात्' कहा है। यह न्याय एकान्तिक/नित्य नहीं है, अतः 'समागच्छति' में 'आङ्' का व्यवधान होने पर भी ‘समोगमृच्छिाच्छिश्रुवित्स्वरत्यर्तिदृशः' ३/३/८४ से आत्मनेपद नहीं होगा। इस न्याय की वृत्ति के 'व्यवहित' और 'विपर्यस्त' पदों की समझ देते हुए श्रीहेमहंसगणि न्यास में कहते हैं कि आमन्त धातु के बाद ही परोक्षान्त 'कृ-भू' और 'अस्' का प्रयोग होना चाहिए। कहीं कहीं काव्य में निम्नोक्त प्रकार के व्यवहित तथा विपर्यस्त प्रयोग पाये जाते हैं, जो व्याकरणानुसार असाधु/अनुचित ही माना जाता है । व्यवहित-: "तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात्' । विपर्यस्त : 'नाऽरेश्चकार गणयामयमस्त्रपातान् ।' श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय के बारे में निम्नोक्त टिप्पणी करते हैं। यहाँ उपसर्ग संज्ञा के सूत्र 'धातोः पूजार्थस्वति-' ३/१/१ में 'धातोः प्राक्' के स्वरूप में 'धातो' में पञ्चमी विभक्ति है, अतः उपसर्ग हमेशां धातु से अव्यवहित पूर्व में ही होता है । कोई यहाँ शंका कर सकता है कि 'धातोः प्राक्' में धातु शब्द से षष्ठी विभक्ति है ऐसा मान लिया जाय तो 'प्राक्' शब्द पूर्व अवयववाचक माना जायेगा और उसी प्रकार उपसर्ग धातु के आदि अवयव स्वरूप होगा, तो, उसका 'स्वाङ्गमव्यवधायि' ॥ ११॥ न्याय में ही समावेश हो सकेगा, किन्तु यह बात सही नहीं है क्योंकि 'प्राक्' शब्द दिशावाचक है, अत: दिक्शब्द के योग में 'धातोः' में पंचमी ही मानी जायेगी और वही उचित है तथा 'प्राक्' शब्द पूर्व अवयववाचक के स्वरूप में कहीं भी प्रयुक्त हुआ दिखायी नहीं देता है। और 'समागच्छति' प्रयोग में श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय की अनित्यता बतायी है, किन्तु वास्तव में इस न्याय द्वारा उपसर्ग का दूसरे के प्रति अव्यवधायकत्व को कहने से, उसका परस्पर अव्यवधायकत्व सिद्ध नहीं हो सकता है । तथा परस्पर का व्यवधायकत्व किसी भी प्रकार से दूर नहीं किया जा सकता है । अतः 'सम्' और 'गम्' के बीच आये हुए 'आङ्' को व्यवधान ही माना जायेगा, अत एव आत्मनेपद की प्राप्ति नहीं हो सकती है और इसके लिए इस न्याय के अनित्यत्व की कल्पना न करनी चाहिए । दूसरी बात यह कि 'सम्' उपसर्गयुक्त 'गम्' धातु के कर्म की विवक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy