________________
[23] निपातनान्न्यायाः स्वेष्टसाधनानुगुणा युक्तय उच्यन्ते ।"34
अर्थात् जिनके द्वारा सन्दिग्ध अर्थ का निश्चय/निर्णय किया जाय, वे 'न्याय' कहे जाते हैं और 'नी' (णींग प्रापणे ) धातु से 'न्यायावाया'- ५/३/१३४ सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय करके निपातन से 'न्याय' शब्द की सिद्धि की जाती है। इसका सामान्य अर्थ यही है कि अपने इष्ट साध्यों की सिद्धि में जो साधन स्वरूप है ऐसी युक्तियों को ही 'न्याय' कहे जाते हैं।
ऐसी अन्वर्थक व्युत्पत्ति से सर्वन्याय सूत्रों का एक सर्व साधारण/सर्वसामान्य प्रयोजन सन्दिग्ध अर्थ का निर्णय ही बताया गया है।
आचार्य श्रीलावण्यसूरिजी ने 'न्यायसमुच्चय' की उनकी तरङ्ग' टीका में इसी व्याख्या का स्वीकार तो किया है तथापि उनकी मान्यतानुसार 'न्याय' का यही लक्षण संज्ञासूत्र और अन्य अधिकारसूत्र व विधिसूत्र में प्राप्त है क्योंकि वे भी सन्दिग्धार्थ के निर्णय में सहायक है, अतः इस अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए उन्होंने नव्यन्याय की शैली से उसका इस प्रकार परिष्कार किया है "विधिशास्त्र प्रवृत्तिनिवृत्त्युपयोगिसाधुत्वाप्रकारकशक्त्यविषयक बोधजनकत्वे सति अधिकारशास्त्रभिन्नत्वं न्यायत्वमिति ।'35 आगे चलकर उन्होंने इसी व्याख्या के प्रत्येक विशेषण का महत्त्व भी बताया है।
पाणिनीय परम्परा में भी परिभाषा के अर्थ में 'न्याय' शब्द प्रयुक्त है। अतः 'परिभाषा' और 'न्याय' दोनों समान ही है। यहाँ 'न्याय' शब्द की जो व्याख्या बतायी है, वह केवल व्युत्पत्तिनिमित्तक ही है अर्थात् यहाँ 'न्याय' शब्द केवल रूढ परिभाषा के अर्थ में ही प्रयुक्त है, अत: संज्ञासूत्र, विधिसूत्र व अधिकारसूत्र का उसमें समावेश नहीं होता है। ८. परिभाषा/न्याय की आवश्यकता
प्राचीन काल में, वर्तमान युग की तरह पुस्तक लिखना व लिखवाना सरल कार्य न था किन्तु बहुत मुश्किल कार्य था क्योंकि प्राचीन काल में कागज ही न थे । उसी काल में ज्यादातर लोग भोजपत्र या ताडपत्र पर ग्रंथ लिखवाते थे । प्राचीन काल में ओर एक परम्परा यह थी कि अध्ययन के दौरान विद्यार्थी शिष्य स्वयं सम्पूर्ण ग्रंथ कंठस्थ कर लेता था । आज भी जैन श्रमण परम्परा में मूलसूत्र, आगम इत्यादि कंठस्थ करने की परम्परा विद्यमान है । इतना ही नहीं व्याकरणशास्त्र के अध्ययन के साथ जैन साधु-साध्वी, व्याकरण के मूलसूत्र, वृत्ति, उदाहरण, बृहद्वृत्ति इत्यादि सम्पूर्ण ग्रंथ कंठस्थ करते थे और कंठस्थ करते हैं । इसी कारण से व्याकरण की रचना में एक विशिष्ट पद्धति अपनायी जाती है, जिसे सूत्रात्मक पद्धति कही जाती है । ऐसी पद्धति केवल भारतीय परम्परा में ही विद्यमान थी । यही पद्धति की विलक्षणता यह है कि उसमें कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा अर्थ की समझ पायी जाती है । अत: व्याकरण के सूत्र में पहले बताया उसी प्रकार अतिसंक्षिप्तता अत्यावश्यक थी, उसके बावजुद अनिष्ट अर्थ पैदा न हो, इसका भी ख्याल रखना जरूरी होने से सूत्रों के स्पष्ट अर्थ करने के लिए या सन्दिग्ध अर्थ की निवृत्ति के लिए परिभाषा सूत्रों की आवश्यकता खडी हुई ।
न्यायसंग्रह व अन्य परिभाषासंग्रह के सूत्रों का मुख्यतया तीन प्रकार का कार्य होता है । १. व्याकरण के सूत्रों के अर्थ करने में या स्पष्ट समझ देने में वे सहायक होते हैं । उदा. 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' ॥ १ ॥, 34. द्रष्टव्यः 'न्यायसंग्रह' न्यायार्थमञ्जूषाबृहद्वृत्ति पृ. २.. 35. द्रष्टव्यः 'न्यायसंग्रह'-तरङ्ग टीका, पृ. ३ 36. वरदेश्वरयज्वानं, नीलकण्ठेन यज्वना ।
नमस्कृत्य सतां प्रीत्यै, शब्दन्यायो विविच्यते ॥ (नीलकंठदीक्षितविरचिता परिभाषावृत्ति, 'परिभाषासंग्रह' पृ. २९३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org