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________________ [22] भी शब्द में अकार को छोड़कर अन्य १३ स्वर में से एक भी स्वर दिखाई नहीं पडता है । अर्थात् सर्व अक्षर अकारवाले ही है।o इसी स्तवन की प्रतिलिपि श्रीसुन्दरदेवगण ने की है । दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसे कवित्वशक्तिवान् 'न्यायसंग्रह' के कर्ता श्रीहेमहंसगणि के बारे में इससे ज्यादा कोई माहिती प्राप्त नहीं है। उनके जन्म स्थल- समय, माता-पिता, दीक्षास्थल- समय, पंडितपद और वाचक पद का समय, कालधर्म का समय इत्यादि के बारे में कहीं भी कोई भी सन्दर्भ नहीं मिल पाया है । ७ 'न्याय' और 'परिभाषा' शब्दों की व्याख्याएँ 'न्यायसंग्रह' के कर्ता श्रीहेमहंसगणि ने 'परिभाषा' शब्द के स्थान पर 'न्याय' शब्द का प्रयोग किया है। जबकि अन्य व्याकरण परम्परा में परिभाषा' शब्द का प्रयोग है। यद्यपि पहले बताया है उसी तरह परिभाषा स्वरूप यही नियम में से कुछ पाणिनि की अष्टाध्यायी में प्राप्त है किन्तु उसके लिए पाणिनि ने स्वयं परिभाषा शब्द का प्रयोग नहीं किया है किन्तु वार्तिककार कात्यायन ने 'परिभाषा' शब्द का प्रयोग अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः (पा. सू. १/१ / ६९ ) सूत्र के चौथे वार्तिक में किया है तथा अन्यत्र भी 'परिभाषा' शब्द उनके द्वारा प्रयुक्त है। तो 'परिभाषेन्दुशेखर' के कर्ता नागेश, जो परिभाषा के क्षेत्र में पाणिनीय परम्परा में सर्वमान्य है, उन्होंने परिभाषा की व्याख्या ही नहीं दी है तथापि सभी वैयाकरण 'परिभाषा' शब्द को 'परि' उपसर्ग से युक्त 'भाष्' धातु से निष्पन्न मानते हैं 130 " हरदत्त, 'उनकी 'पदमञ्जरी' टीका में परिभाषा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि "परितः सर्वत्र पूर्वत्र परत्र व्यवहिते चानन्तरे च भाष्यते कार्यमनया सा परिभाषा "3" तो वैद्यनाथ पायगुण्डे कहते हैं "परितो व्यापूतां भाषां परिभाषां प्रचक्षते ।" बहुत से वैयाकरणों ने परिभाषा की इसी व्याख्या का स्वीकार किया है। दूसरी ओर कुछेक वैयाकरण "अनियमे नियमकारिणी परिभाषा" ऐसी व्याख्या करते हैं, जबकि जयदेव और उनके अनुयायी जो तार्किक हैं, वे नव्यन्याय की शैली से परिभाषा की व्याख्या करते है, जो इस प्रकार है- "लक्ष्यधर्मिकसाधुत्वप्रकारकाप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितबोधोपयोगि बोधजनकत्वं परिभाषात्वम्" 1132 परिभाषा का महत्त्व बताते हुए महाभाष्यकार पतंजलि कहते हैं कि “परिभाषा पुनरेकदेशस्था सती सर्व शास्त्रमभिज्वलयति प्रदीपवत्" अर्थात् परिभाषा व्याकरणशास्त्र में केवल एक ही जगह बतायी हो तथापि उसका संपूर्ण व्याकरणशास्त्र में कहीं भी उपयोग किया जा सकता है अर्थात् सर्वत्र इसकी प्रवृत्ति निःसंदेह हो सकती है HT 'न्यायसंग्रह' में श्रीमहंसगणि ने 'न्याय' शब्द की व्याख्या और सिद्धि बताते हुए कहा है कि "इह तु नीयते सन्दिग्धोऽर्थो निर्णयमेभिरिति 'न्यायावायाध्यायोद्यावसंहारावहाराधारदारजारम्' ५ / ३ / १३४ इत्यनेन घञि 30. The word Paribhasa is strickly used as a technical term in Vyakarana, Nägeša has not defined the term. The word Paribhāṣā is derived from the root 'bhas' with the prefix 'pari' by all grammarians and commentators. [Introduction of Paribhasendusekhara by Prof K. V. Abhyankara. pp.3] Sce : Introduction of Paribhasasamgraha by Prof KV Abhyankara pp. 4] 32. See Introduction of Paribhasendusekhara by Prof. K. V. Abhyankara pp. 3] 33. द्रष्टव्य : महाभाष्य : सूत्र : 'सुबामन्त्रिते पराङ्यवत् स्वरे' [पा. सू. २/१/१] The Paribhaṣa rule casts a glance at all the rules just as the light of the moon and goes whereever it is needed for the clarification of the sense of the sutras. ( Introduction of Paribhasasargrala by Prof. K. V. Abhyankara ) यहाँ श्रीअभ्यंकरजी ने light of the moon लिखा है किन्तु मूल में 'प्रदीपवत्' शब्द होने से light of a lanup होना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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