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________________ १८२ प्रतिपादन नहीं करता है । यह न्याय प्रत्येक परिभाषासंग्रह में प्राप्त है। केवल शाब्दिक परिवर्तन कुछेक स्थान पर किया गया है । न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) ॥ ६८॥ स्वाङ्गमव्यवधायि ॥ ११ ॥ धातु इत्यादि का अपना अङ्ग उसी धातु इत्यादि सम्बन्धित कार्य करने में व्यवधायक नहीं होता है । द्वित्व इत्यादि स्वरूपयुक्त धातु इत्यादि का अपना अङ्ग, उसी धातु इत्यादि अङ्गी सबन्धित कार्य करने में व्याघात करता नहीं है । 'स्वाङ्ग' होनेका यही फल है, ऐसा दिखानेवाला यह न्याय है 1 प्रकृति सम्बन्धित कार्य करते समय उसी प्रकृति का अपना ही अङ्ग व्यवधान बनता हो तो, वही व्यवधान, व्यवधान नहीं माना जाता है और कार्य होता ही है । उदा. ‘संचस्कार' यहाँ ‘सम्' उपसर्ग से 'कृ' धातु है । यहाँ 'स्सद्' का आगम अन्तरङ्ग होने से प्रथम होगा, अतः 'सम् स्सट् कृ' होगा | अब जब परोक्षा का 'णव्' प्रत्यय होगा तब द्वित्व विधि प्रथम होगी क्योंकि वह पर और नित्य है और केवल धातु आश्रित होने से अन्तरङ्ग भी है । अतः 'स्सटि सम:' १/३/१२ और 'लुक्' १ / ३ / १३ प्रवृत्त होने से पहले द्वित्व होगा । बाद में 'ऋतोऽत् ' ४/१/३८ से 'ऋ' का 'अ' और 'कङश्चञ्' ४/१/४६ से 'क' का 'च' होकर 'सम् चस्कृ अ' होगा । अब इस न्याय के बल से धातु के अङ्ग स्वरूप द्वित्व से उत्पन्न 'च' का व्यवधान, व्यवधान नहीं माना जाता है, अतः 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ' न्याय से स्सट् की निवृत्ति नहीं होती है । धातु के पूर्व में 'स्सट्' आगम तभी ही होता है कि जब 'सम्' और धातु के बीच आनन्तर्य हो । यदि द्वित्व से उत्पन्न वर्ण या वर्णसमुदाय का व्यवधान के स्वरूप में स्वीकार किया जाय तो 'सम्' और 'कृ' धातु के बीच आनन्तर्य का अभाव होने से 'स्सद्' की निवृत्ति होती ही है । इस न्याय का ज्ञापन 'नेङ्र्मादापतपद'.....२/३ / ७९ सूत्र का, उपन्यास 'द्वित्वेऽप्यन्तेऽप्यनितेः परेस्तु वा' २/३/८१ के पूर्व किया गया, उससे होता है, यहाँ यदि 'द्वित्वेऽप्यन्ते'- -२/३/८१ सूत्र का स्थापन पहले किया होता तो, 'द्वित्वेऽपि' की अनुवृत्ति 'नेर्मादा.....' २ / ३ / ७९ सूत्र में आती तो 'प्रणिपतति' की तरह 'प्रणिपपात' में भी 'नि' का 'णि' निः संकोच होता, किन्तु इस प्रकार उसकी अनुवृत्ति के बिना ही, यह न्याय होने से 'द्वित्वेऽप्यन्ते' - २/३/८१ से पूर्व ही 'नेर्मादापत'२/ ३ / ७९ सूत्र रखा है, तथापि इष्टप्रयोगसिद्धि होती है 'प्रणिपतति' में जैसे 'नि' का 'णि' किया है वैसे 'प्रणिपपात' में 'नि' का 'णि' इष्ट ही है और वही 'नि' का 'णि' तब ही संभवित होता, जब 'द्वित्वेऽप्यन्ते - ' २/३/८१ सूत्र के बाद ‘नेर्मादापत’- २/३/७९ सूत्र रखा होता, क्योंकि वैसा करने से 'द्वित्वेऽ पे' की अनुवृत्ति 'नेर्मादापत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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