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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६७) से 'अट्' के व्यवधान में षत्व की प्राप्ति नहीं थी, अतः यहाँ 'अट्यपि' कहा है।
सूत्र के अनुसार यहाँ 'स' का, उपसर्गस्थित नामी, अन्तस्था और कवर्ग से अव्यवहित परत्व ही षत्व का निमित्त है और 'अट्' के व्यवधान से वही अव्यवहित परत्व का बाध होता है, उसे दूर करने के लिए 'अट्यपि' कहा है, अतः वही सार्थक है, ऐसा बृहद्वृत्ति का आशय है ।
'आगमोऽनुपघाती' न्याय को श्रीहेमहंसगणि ने 'आगमा यद्गुणीभूता' न्याय के समानार्थ मानकर, उसमें ही उसका समावेश किया है, उसका श्रीलावण्यसूरिजी ने खंडन किया है।
यहाँ 'भवतु' शब्द से, 'ऋदुदितः'१/४/७० से 'न' आगम होगा तब भवतु का अत्वन्तत्व खंडित नहीं होगा और अत्वन्त निमत्तक दीर्घ अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० से होगा । अनुपघातित्व का अर्थ बताते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते है कि 'स्वव्यवधानहेतुकं यथाप्राप्तकार्याणामुपघातमागमो न करोति ।' यदि आगम को तत्सम्बन्धित नाम या धातु स्वरूप प्रकृति के अवयव स्वरूप मान लिया जाय तो वही आगम प्रकृति के किसी भी कार्य में व्यवधान नहीं बनता है । अतः उपर्युक्त व्याख्यानुसार वही आगम अनुपाघाती कहा जाता है ।
इसके बारे में टिप्पणी करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'भवान्' इत्यादि रूप में 'आगमोऽनुपघाती' न्याय का कोई फल नहीं है क्योंकि 'न' आगम का विधान करनेवाला सूत्र 'ऋदुदितः' १/४/७० से दीर्घविधायक 'अभ्वादेरत्वस: सौ' १/४/९० पर है । अत: वही बलवान् होकर दीर्घविधि प्रथम होगी बाद में न आगम होगा । अतः इस न्याय की वहाँ कोई आवश्यकता नहीं हैं । 'परान्नित्यम्' न्याय भी यहाँ प्रवृत्त नहीं होता है । परकार्य से नित्यकार्य बलवान् है, तथा आगमविधि प्रथम होगी ऐसा न कहना क्योंकि आगमविधि प्रथम होगी तो 'भवान्' में अत्वन्तत्व का विघात होने से दीर्घविधि अनवकाश होगी, अतः वह अपवादशास्त्र होगा, और नित्यशास्त्र से अपवादशास्त्र बलवान् होता है, अतः दीर्घ ही प्रथम होगा और 'न' आगम बाद में होगा ।
यदि आगम को इस न्याय से अव्यवधायक माना जाय, तो 'अतो म आने' ४/४/११४ से होनेवाले 'म' आगम की व्यर्थता होगी, अतः यह न्याय, आगम के अव्यवधायकत्व का कथन करनेवाला नहीं है. किन्त आगम के स्वभावसिद अनपघातित्त्व का कथन करनेवाला मानना वह इस प्रकार है ।
व्याकरणशास्त्र में आदेश को शत्रुवत् माना है और आगम को मित्रवत् माना है । आदेश जिसका होता है उसे वह दूर करके उसके स्थान में वह स्वयं आता जाता है, अतः वह शत्रुसमान है क्योंकि जैसे शत्रु राजा, अन्य राजा को गादी से, उठाकर स्वयं गादी/सिंहासन पर बिराजमान होता है, वैसा ही आदेश के विषय में है।
जबकि आगम किसीके स्थान पर नहीं होता है अर्थात् जहाँ होता है वहाँ, उसके पास बैठ जाता है, अतः वह किसीका उपधात नहीं करता है।
संक्षेप में, 'मित्रवदागमः' न्याय का ही यह न्याय अनुवाद करता है, किन्तु अन्य कुछ नूतन
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