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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ६६ ) यह न्याय नित्य है ।
श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यतानुसार यह न्याय लोकसिद्ध और ज्ञापकसिद्ध है, अत एव इसकी अनित्यता नहीं है ।
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पाणिनीय तंत्र में इस न्याय को लोकसिद्ध बताया गया है। उन्होंने बताया है कि गंगा के ग्रहण से गंगा मे प्रविष्ट अन्य नदियों का भी ग्रहण हो ही जाता है । तथा देवदत्ता अर्थात् किसी स्त्री के ग्रहण से उसके उदर में स्थित गर्भ का भी ग्रहण हो जाता है । इस प्रकार लौकिक दृष्टान्त से सिद्ध यह न्याय, ऊपर बताया उसी प्रकार ज्ञापक द्वारा भी सिद्ध हो सकता है ।
व्याडि के 'परिभाषासूचन' में यह न्याय ( नं. १८ ) है । इसके अलावा 'तद्भक्तस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥१७॥ न्याय भी देखने को मिलता है और 'तदेकदेशभूतस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ' ॥ ६२ ॥ न्याय भी है । ये तीनों न्याय प्राय: समान हैं किन्तु शाकटायन परिभाषा में 'तद्भक्तस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' के स्थान पर ‘तदागमस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ' ॥ न्याय है, अतः ऐसा निश्चय हो सकता है कि ' तद्भक्तस्तद्'न्याय आगम सम्बन्धित है किन्तु प्रत्यय सम्बन्धित नहीं है, जबकि यह न्याय प्रत्यय सम्बन्धित है। इस प्रकार दोनों न्याय के क्षेत्र भिन्न-भिन्न है ।
व्याडि के परिभाषासूचन में यह न्याय दो बार बताया गया है, जबकि कातंत्र व कालाप परम्परा में यह न्याय नहीं बताया है ।
॥६७॥ आगमा यद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते ॥ १०॥
प्रकृति के ग्रहण से उसके अवयव बने हुए आगम का भी ग्रहण होता है । जो 'आदि' शब्द से या 'अन्त' शब्द से निर्दिष्ट हो, उसे आगम कहा जाता है। उदा. 'अड् धातोरादिर्ह्यस्तन्यां चामाङा' ४/४/२९ और 'अनाम्स्वरे नोऽन्तः ' १/४ / ६४ इत्यादि
आगम,
यहाँ बहुवचन 'अतान्त्रिक' होने से एक या अनेक आगम का ग्रहण करना । जिस धातु या नाम में उसी धातु या नाम के अवयव स्वरूप हो गया हो, तो उसी धातु या नाम के ग्रहण से, उसके अवयव स्वरूप बने आगम का भी ग्रहण हो जाता है अर्थात् केवल धातु या नाम से जो कार्य होता है, वही कार्य आगमसहित धातु या नाम से भी होता है।
यहाँ 'यद्गुणीभूताः ' शब्द में, लक्षणा द्वारा 'गुण' शब्द का अर्थ 'अवयव' ग्रहण करना । 'आदि' शब्द और 'अन्त' शब्द द्वारा किये गये निर्देश का फल बतानेवाला यह न्याय है ।
उसमें एक आगम हो ऐसा उदाहरण 'प्रण्यपतत्' है। यहाँ 'प्र' और 'नि' उपसर्ग सहित 'पत्' धातु है । इस प्रयोग में 'प्रनि' और 'पत्' धातु के बीच 'अद्' आगम होने पर भी 'नेङ्र्मादा- '२/ ३ / ७९ से 'नि' का 'णि' होगा ही, क्योंकि इस न्याय से 'पत्' कहने से 'अपत्' का भी उसमें ग्रहण हो जायेगा क्योंकि अद् आगम पत् धातु का अवयव हो जाता है।
दो आगम हो ऐसा उदाहरण 'प्रण्यपनीपत्' है। यहाँ 'पत्' धातु के ग्रहण से 'नी' और 'अड्'
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