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________________ १७६ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायन परिभाषापाठ व जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति को छोड़कर कहीं भी प्राप्त नहीं है ।। ॥६६॥ तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥९॥ प्रकृति इत्यादि के मध्य में स्थित का भी प्रकृति के ग्रहण से, ग्रहण होता है। एक या अनेक 'श्ना' इत्यादि प्रत्यय धातु इत्यादि के बीच में हो तो, उस धातु इत्यादि से जो कार्य करना हो, वही कार्य उसी धातु से भी होता है । धातु के दो अवयवों के बीच प्रत्यय आदि आने से धातु खंडित हो गया, ऐसा माना जाता है और दो कपाल/भाग में खंडित घट से पानी नहीं लाया जा सकता है, वैसे खंडित हुए धातु से धातुकार्य नहीं हो सकता, ऐसी मान्यता को दूर करने के लिए यह न्याय है । एक प्रत्यय बीच में आया हो ऐसा उदाहरण इस प्रकार है। उदा. 'अरुणत्' यहाँ 'श्न' प्रत्यय धातु के दो अवयव 'रु' और 'ध्' के बीच आया है तथापि धातु के पूर्व 'अड्धातोरादिमुस्तन्यां चामाङा' ४/४/२९ से अट होगा । 'अनेक प्रत्यय बीच में आया हो ऐसा उदाहरण इस प्रकार है । उदा. 'अतृणेट्' यहाँ 'तृह्' धातु के दो अवयव 'तृ' और 'ह्' के बीच 'श्न' प्रत्यय और 'ईत्' आये हैं, तथापि धातु के पूर्व 'अधातोरादि ....४/४/२९ से 'अट्' आगम होगा । किसीको यहाँ शंका होती है कि 'श्न' प्रत्यय तथा 'श्न' प्रत्यय और 'ईत्' करने से पूर्व ही धातु के पूर्व/आदि में अट्' आगम करेंगे तो इस न्याय का यहाँ अवकाश ही कहाँ रहता है ? उसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि आपने जो शंका की है वह व्यर्थ है क्योंकि 'कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चाद्वृद्धिस्तद्बाध्योऽट्च' न्याय से अट का आगमन धातु सम्बन्धित सर्व कार्य करने के बाद ही होगा । अतः ‘अड्' का आगमन प्रथम नहीं हो सकता है। इस न्याय का ज्ञापक 'त्वमहं सिना प्राक् चाकः' २/१/१२ सूत्रगत 'प्राक् चाकः' शब्द है। 'अक्' प्रत्ययान्त 'युष्मद्' और 'अस्मद्' के प्रथमा विभक्ति के 'सि' प्रत्यय पर में होने पर 'त्वकम्' और 'अहकम्' रूप ही इष्ट है । यदि 'त्यादिसर्वादेः स्वरेष्वन्त्यात् पूर्वोऽक्' ७/३/२९ से 'अक्' प्रथम करने पर इस न्याय से 'अक्' सहित ‘युष्मद्' और 'अस्मद्' का 'त्वम्' और 'अहम्' आदेश होगा तो 'अक्' का विधान व्यर्थ होगा और शब्द में 'अक्' होने पर भी नहीं सुना जायेगा, अतः 'अक्' प्रत्यय करने से पूर्व ही 'त्वम्' और 'अहम्' आदेश हो तभी ही 'त्वकम्' और 'अहकम्' होंगे । अत एव सूत्र में 'प्राक् चाक्ः' शब्द रखा है। यदि यह न्याय न होता तो 'अक्' प्रत्यय 'त्वम्' और 'अहम्' आदेश करने से पूर्व किया होता, तो भी 'त्वमहं सिना-'२/१/१२ सूत्र से केवल 'युष्मद्' और 'अस्मद्' का त्वं, अहं आदेश होता और 'अक्' प्रत्यय रहता ही किन्तु यह न्याय होने से ही 'प्राक् चाकः' रखना आवश्यक है। अतः वह इस न्याय का ज्ञापक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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