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________________ १५८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) इस न्याय की पृथक् कोई आवश्यकता नहीं है । वस्तुतः यह न्याय, इसी नियम का ही अनुवाद है। इस न्याय की अनित्यता के फलस्वरूप श्रीहेमहंसगणि ने बताया है कि जैसे आख्यात के 'ऋदिच्छिव'-३/४/६५ सूत्र से 'जष्' धातु से अद्यतनी में 'अङ्' प्रत्यय होने पर ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से गुण होता है वैसे कृत्प्रकरणसम्बन्धित ‘षितोऽङ्' ५/३/१०७ से विहित 'अङ्' प्रत्यय पर में हो तो भी 'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से ही गुण होगा । श्रीलावण्यसूरिजी के मतानुसार यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है । वे कहते हैं कि ऊपर बताया उसी तरह यह न्याय ज्ञापकसिद्ध नहीं है किन्तु स्वतःसिद्ध ही है । अतः इस न्याय की अनित्यता की कल्पना न करनी चाहिए । यह न्याय नित्य होगा तो भी गुणविधायक सूत्र-'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से ही दोनों स्थान पर गुण होगा । प्रथम बात यह कि इस न्याय की प्रवृत्ति शब्द और अर्थ का निर्णय करने के लिए ही है। जबकि यहाँ 'अङ्' का अर्थ द्वारा ग्रहण नहीं किया गया है किन्तु स्वरूप से ही ग्रहण किया है अर्थात् जहाँ इस शब्द द्वारा कोन-सा अर्थ ग्रहण किया जाय ? ऐसा संशय हो वहाँ प्रकरण के अनुसार अर्थ करना, ऐसा इस न्याय का तात्पर्य है । यहाँ स्वरूप से ही 'अङ्' का ग्रहण है किन्तु 'अङ्' वाचक अन्य पद से ग्रहण नहीं किया है । अतः यहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति का अवकाश ही नहीं है। जबकि द्रि संज्ञा में उसके द्वारा विशेष प्रत्ययों का ग्रहण होता है और द्रि संज्ञा दो प्रकार के प्रत्ययों को होती है । एक प्रकार अपत्य अर्थ में होनेवाले और दूसरा प्रकार 'शस्त्रजीविसङ्गात' अर्थ में होनेवाले । अतः यहाँ कौन-से अर्थ में हुए प्रत्यय की द्रि संज्ञा लेना उसका संशय होने से उसका निर्णय करने के लिए इस न्याय की प्रवृत्ति का संभव है, किन्तु श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने पुनः द्रि का ग्रहण करके इस न्याय की प्रवत्ति को रोक दिया है, यह उचित है। अब अ विधायक दोनों सूत्र धातु से ही अङ् करते हैं, अतः दोनों का प्रकरण एक ही मानना चाहिए । दूसरी बात यह है कि पहले 'अङ्' विधायक सूत्र 'ऋदिच्छिवस्तम्भू'- ३/४/६५ के समीप में ही गुण विधायक सूत्र का. पाठ नहीं किया है । वैसे द्वितीय 'अङ्' विधायकसूत्र 'षितोऽङ्' ५/३/१०७ के बाद तुरत ही गुणविधायक सूत्र का पाठ नहीं किया है, किन्तु स्वतंत्र गुणविधायक प्रकरण में ही उसका पाठ किया है, अत: यहाँ प्राकरणिक या अप्राकरणिक का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। दूसरी एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि आख्यातप्रकरण और कृत्प्रकरण को भिन्न-भिन्न प्रकरण के स्वरूप में कहीं भी स्वीकृति नहीं दी गई है और वही बात ‘सङ्ख्यासम्भद्रान्मातुर्मातुर्च' ६/१/६६ सूत्र के न्यास से स्पष्ट हो जाती है । अतः इस न्याय के अनित्यत्व का फल बताने के लिए दोनों प्रकरणों को भिन्न-भिन्न प्रकरण के स्वरूप में मानना उचित नहीं है। न्यास में की गई चर्चा का सार इस प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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