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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६१) १५७ और 'अण्' प्रत्यय का ग्रहण करना है और इसी सूत्र से इसका लोप करना है, अत: 'मद्रस्यापत्यं स्त्री मद्री' में जैसे 'मद्र' शब्द से अपत्य अर्थ में 'पुरुमगधकलिङ्गशूरमसद्विस्वरादण' ६/१/११६ से 'अण्' प्रत्यय होगा और उसकी द्रि संज्ञा होगी, उसका 'द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादेः' ६/१/१२३ से लोप होगा । बाद में 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणकार्यं विज्ञायते' न्याय से लुप्त अण् प्रत्यय निमित्तक 'अणजेयेकण' - २/४/२० से ङी प्रत्यय होगा और 'अस्य डयां लुक्' २/४/८६ से 'मद्र' के 'अ' का लोप होने से 'मद्री' शब्द सिद्ध होगा। वैसे ही पशु नामक किसी स्त्री के बहु अपत्य 'माणवक' है, तो वहाँ 'पुरुमगध....' ६/ १/११६ से 'अण्' होगा और उसको द्रि संज्ञा होगी, उसी द्रि संज्ञक 'अण्' का 'शकादिभ्यो नेर्लुप्' ६/१/१२० से लुप् होगा और 'पर्शवः' रूप होगा, उसका स्त्रीत्व विवक्षित 'शस्त्रजीविसङ्घ' हो तब 'पशु' शब्द से 'पर्वादेरण' ७/३/६६ से द्रि संज्ञक अण् होगा, उसका भी 'द्रेरणोऽप्राच्य-'६/ १/१२३ से लुप् होगा । बाद में 'उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य ऊङ्' २/४/७३ से 'ऊङ्' होगा और 'पर्पू' शब्द सिद्ध होगा। यह न्याय अनित्य होने से 'जष्' धातु का अद्यतनी के दि प्रत्यय के साथ 'अजरत्' रूप सिद्ध करते समय जैसे 'ऋदिच्छ्वि ' -३/४/६५ से हुए आख्यात सम्बन्धित 'अङ्' प्रत्यय होने से 'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से गुण होता है, वैसे 'जरणं जरा 'इत्यादि में 'षितोऽङ्' ५/३/१०७ से हुए कृत्सूत्रोक्त 'अङ्' प्रत्यय होने से 'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से गुण होता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो प्राकरणिक ऐसे 'ऋदिच्छ्वि -' ३/४/६५ से हुए 'अङ्' प्रत्यय पर में होता तभी ही गुण होता क्योंकि वह आख्यात् सूत्रोक्त है और 'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ आख्यात विभाग में ही कथित है । जबकि 'षितोऽङ्' ५/३/१०७ कृत्सूत्रोक्त होने से वह अप्राकरणिक है, अतः 'ऋवर्णदृशोऽङि' ४/३/७ से गुण नहीं हो सकता है तथापि गुण किया है वह इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है। श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय के कुछेक अंश की इस प्रकार चर्चा करते हैं । एक ही शब्द अनेक अर्थ बताने में समर्थ हो तब उस प्रयुक्त शब्द का कोई एक ही अर्थ निश्चित करने में जैसे संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोधिता, अर्थ, प्रकरण, लिङ्ग, देश, काल, सामर्थ्य, औचित्य इत्यादि अनेक कारण के सन्दर्भ लिए जाते हैं, वैसे व्याकरण में भी अभिधा के नियामक के रूप में प्रकरण है ही और वह सर्वसम्मत है ही, यही इस न्याय से प्रतीत होता है। यह न्याय स्वत:सिद्ध ही है, अतः उसे ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है, तथापि सिद्धहेमबृहद्वति में 'द्रेरणो-' ६/१/१२३ सूत्र में कथित 'द्रावनुवर्तमाने पुनर्द्रिग्रहणं भिन्नप्रकरणस्यापि द्रेर्लुबर्थम्' विधान द्वारा इस न्याय को सूचित किया है। कुछेक के मतानुसार 'प्रकरण' अर्थविशेष का ही नियामक है' ऐसा सामान्य नियम होने से १. संयोगो विप्रयोगश्च, साहचर्यं विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्गं, शब्दस्यान्यस्य संनिधिः ॥ सामर्थ्यमौचिती देशः, कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दस्यानवच्छेदे, विशेषस्मृतिहेतवः ॥ (वाक्यपदीय-भर्तृहरि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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