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________________ [20] 'ज्ञापक' के लिए 'ख्यापक,स्थापक, बोधक, गमक, प्रमापक, उपदर्शक, अनुमापक, निवेदक, सम्पादक, संवादक, अनुवादक, निश्चायक, निर्णायक, ज्ञप्तिकर, उद्घोषक, प्रदर्शक, विमुद्रक, उन्नयन, आपादक, संभावक, ज्ञप्तिकृत्त्व, आसादक, प्रपञ्चक, संवादी ज्ञप्तिकुशल, प्रणायक, प्रघोषक, प्रगुणक, घोषक, प्राणक, सूचक, प्रवर्तक, ख्यातिकर, स्फातिकर, सत्ताकर, व्यक्तिकर, उद्भावक, आविर्भावक, आविष्करण, प्रकाशक, विकाशक, प्रतिभासक, उद्भासक, विभासक, उद्दीपक, उद्योतक' इत्यादि बहुत से शब्दों का प्रयोग किया है। 'अनित्य' व 'अनित्यता' के लिए प्रयुक्त विविध शब्द इस प्रकार है -: 'अस्थिरता, अस्थेष्ठत्व, अस्थैर्य, औदासीन्य, अनैकान्तिकत्व, व्यभिचारी, सव्यभिचार, चञ्चल, अव्यापक, अप्रणिधेय, अनादरण, दभ्रत्व, उपरति, असामर्थ्य, अनाग्रहिता, जय्य, स्वरुचित्व, अक्षामत्व, अनौजस्वित्वाद्, अबलिष्ठता, कादाचित्कत्व, अप्रमाण, असंपातित्व, अप्रामाण्य, चलत्व, अनैष्ठिक, अशंबल, अविश्वास्य, चपलत्व, चटुलत्व, तरलत्व, भ्रंशशील, परिप्लव, अनिद्धता, असार्वत्रिकता, अनिर्णीति, अनियत, अनैयत्य, अदृढ, अनियमत्व, स्याद्वादी, अबलिष्ठत्व, अस्थेमा, क्षामत्व' इत्यादि बहुत से विभिन्न शब्द हैं । ६. 'न्यायसंग्रह' ग्रन्थ के कर्ता श्रीहेमहंसगणि इस 'न्यायसंग्रह' के कर्ता श्रीहेमहंसगणि ने इस ग्रन्थ को छोडकर अन्य दो महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। १. षडावश्यकबालावबोध २. आरम्भसिद्धिवार्तिक । षडावश्यकबालावबोध ग्रंथ श्वेताम्बर जैन परम्परा के ४५ आगमसूत्रगत आवश्यकसूत्र का तत्कालीन गुजराती भाषा में अनुवाद है और यही ग्रंथ मुनि और श्रावकों की दैनिकक्रिया के छः आवश्यकों का निरूपण करता है, अत: इसी ग्रन्थ उन्होंने श्रावकों की प्रार्थना होने पर लिखा है, ऐसा इसी ग्रन्थ की पुष्पिका (colophon) /प्रशस्ति देखने से पता चलता है । यही षडावश्यकबालावबोध उन्होंने वि. सं. १५१० में लिखा है। २. आरम्भसिद्धि, आचार्यश्री उदयप्रभसूरिकृत ज्योति:शास्त्र का एक ग्रन्थ है, जिन पर श्रीहेमहंसगणि ने टीका लिखी है, जिसकी रचना संवत् है वि. सं. १५१४ । इसी ग्रन्थ से उनके ज्योतिः शास्त्र विषयक पांडित्य का परिचय प्राप्त होता है। न्यायसंग्रह' बृहद्वत्ति की प्रशस्ति का निम्नोक्त अन्तिम श्लोक भी ज्योतिःशास्त्र सम्बन्धित उनके पांडित्य का परिचायक है 4 "श्रीमद् विक्रमवत्सरे तिथितिथौ (१५१५) शक्लद्वितीयातिथौ,24 पूर्वाह्ने मृगलाञ्छने मृगशिरः शृङ्गाग्रशृङ्गारिणि । शुक्रस्याहनि शुक्रमासि, नगरे श्रीसागरेऽहम्मदा वादे निर्मितपूर्तिरेष जयताद् ग्रन्थः सुधीवल्लभः ॥ श्रीहेमहंसगणि की स्तुति करते हुए महोपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराज अपनी बनायी हुई 'हेमलघुप्रक्रिया' की स्वोपज्ञबृहद्वत्ति के अन्त में लिखते हैं - 25 "हेमव्याकरणार्णवं निजधिया नावाऽवगाह्यमितो, 'मञ्जूषा' समपूरि भूरिघृणिभिर्यैायरलैरिह । 23. यद्यपि 'न्यायसंग्रह' की प्रस्तावना में षडावश्यक बालावबोध की रचना संवत् १५१० बतायी है तथापि "जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' में श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इसकी रचना संवत् १५०१ बताया है। (द्रष्टव्यः जै. सा. सं. इतिहास. प. ५२१, ४८७) 'जैन परम्परानो इतिहास' भाग-३ में भो त्रिपटी महाराज ने षडावश्यकबालावबोध की रचना संवत् १५०१ ही बतायी है। (जै. प. नो इतिहास, भाग-३, पृ. ४६१) 24. 'न्यायसंग्रह', प्रशस्ति - पृ. १५४ 25. 'जैन परम्परानो इतिहास' भाग-३, पृ. ४६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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