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[19] द्वारा, उनकी स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति के अन्त में दिये गए सत्तावन न्यायों का विवेचन किया गया है । दूसरे खण्ड में श्रीहेमहंसगणि द्वारा ही सिद्धहेमबृहद्वत्ति, लघुन्यास, बृहन्यास इत्यादि के आधार पर, इसमें प्राप्त पैंसठ (६५) न्यायों का समुच्चय किया गया है और उसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध है।
तीसरे खण्ड में शायद ज्ञापकादि से रहित कुछ न्यायसदृश विशेष वचनों का संग्रह किया गया है, जिसकी संख्या केवल अठारह (१८) की है । इनका विवेचन बहुत संक्षेप में किया गया है । अन्तिम खण्ड में समग्र व्याकरणशास्त्र व संपूर्ण न्यायशास्त्र (न्यायसंग्रह) का पूरक केवल एक ही न्याय है, जो व्याकरण से निष्पन्न न होनेवाले किन्तु शिष्टसाहित्य में कवि आदि प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त तथा अन्यान्य व्याकरणपरम्परा स्वीकृत शब्द इत्यादि की सिद्धि करता है।
इन चारों खण्डों को न्यायसंग्रहकार श्रीहेमहंसगणि ने वक्षस्कार नाम दिये हैं।
न्यायसंग्रहकार श्रीहेमहंसगणि ने प्रत्येक न्याय की विवेचना में प्राय: एक ही पद्धति अपनायी है। प्रथम वे अध्याहार पदों/शब्दों को बता देते हैं, बाद में , न्याय में विशिष्ट पद हो तो, उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । न्याय का अर्थ भी साथ में देकर, उसके उदाहरण देते हैं । बाद में न्याय के ज्ञापक और उसकी चर्चा करके, अन्त में न्याय की अनित्यता, उसके उदाहरण और ज्ञापक आदि बताते हैं । सर्वत्र उनका यही क्रम रहा है । केवल 'क्विबर्थं प्रकृतिरेवाह' ॥१४॥ (तृतीय वक्षस्कार) न्याय के विवेचन में इसी पद्धति का अनुसरण नहीं किया है। वहाँ प्रथम, न्याय की अनित्यता का उदाहरण दिया है। बाद में न्याय को समर्थित करनेवाले उदाहरण और अर्थ दिये हैं। इससे यह सूचित होता है कि न्यायसूत्रों/परिभाषाओं के विवेचन या वृत्ति की यदि यहाँ दी गई/स्वीकृत पद्धति से भिन्न पद्धति का किसी वृत्तिकार ने स्वीकार किया हो तो इसमें कोई बाध नहीं है।
श्रीहेमहंसगणि ने 'न्यायसंग्रह' के सूत्रों की रचना में सूत्रात्मक पद्धति का आश्रय किया है । जैसे व्याकरण के सूत्रों में पूर्वोक्त सूत्रों के शब्दों की अनुवृत्ति या अधिकार अगले सूत्र में आती/आता है, उसी प्रकार श्रीहेमहंसगणि द्वारा रचे गये न्यायसूत्रों में भी शब्दों की अनुवृत्ति/अधिकार अगले सूत्र में जाती/जाता है । उदा. 'बलवन्नित्यमनित्यात्' ॥४१॥ न्यायसूत्रगत बलवत्' शब्द की अनुवृत्ति, अपवादात् क्वचिदुत्सर्गोऽपि' ॥५६॥ न्याय तक अर्थात् अगले पन्द्रहसूत्रों में जाती है ।
ठीक उसी तरह न्यायों में भी परस्पर बाध्यबाधकभाव होता है। उदा. 'आदेशादागमः' ॥५०॥ और 'आगमात्सर्वादेशः' ॥५१॥ यहाँ 'आदेशादागमः ' ॥५०॥ बाध्य है और 'आगमात्सर्वादेश: ॥५१॥ उसका बाधक है। यद्यपि 'न्यायसंग्रह' के प्रथम खण्ड/वक्षस्कार के ५७ न्यायसूत्र की रचना व क्रम योजना आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं की है और उसमें श्रीहेमहंसगणि ने कोई परिवर्तन नहीं किया है तथापि आगे दोनों वक्षस्कार/खण्डों में उन्होंने इसी पद्धति का ही अनुसरण किया है । उदा. द्वितीय खंड के प्रथम न्यायसूत्र ‘प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम्' ॥१॥ सूत्र के 'ग्रहणम्' शब्द की अनुवृत्ति अगले पांच सूत्र में होती है । ठीक उसी तरह 'सापेक्षमसमर्थम्' ॥२८॥ और 'प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः' ॥२९॥, दोनों न्याय में परस्परबाध्यबाधकभाव है।
इसी 'न्यायसंग्रह' की वैविध्यसभर प्रासादिक शैली, सरलता देखने से उनकी प्रकांड विद्वत्ता का परिचय होता है। श्रीहेमहंसगणि ने अपने 'न्यायसंग्रह' में 'ज्ञापक' और 'अनित्यता' शब्दों के समानार्थक विभिन्न अनेक शब्दों के प्रयोग किये हैं । ये शब्दों को स्वयं उन्हों ने व्याकरण के आधार पर ही, व्युत्पत्तियुक्त, अन्वर्थक बनाकर प्रयुक्त किये हैं । ऐसा शब्दों का वैविध्य नीरस ऐसे व्याकरण के अध्ययन को रसप्रद (रसदायक) बनाता है । तथा 'न्यायसंग्रह' की वृत्ति में कहीं कहीं व्याकरण के न्याय के समर्थन/पुष्टि में लौकिक न्यायों के उदाहरण दिये हैं, तो कहीं कहीं व्याकरण में लौकिक न्याय से विरुद्ध भी किया जाता है, यह बताने के लिए लोक व्यवहार किस प्रकार होता है, यह भी बताया है।
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