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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६१)
१५५ की प्रवृत्ति नहीं होगी और 'विश्' के साहचर्य से तुदादि का ग्रहण नहीं होगा, ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि 'विश्' के पूर्व में 'हन्' धातु है, अत: उसके साहचर्य से अदादि के विद् का ग्रहण करना पड़ेगा, अतः सानुबन्ध निर्देश करना आवश्यक है। .
संक्षेप में, 'गमहनविद्लविशदृशो वा' ४/४/८४ में तीन न्याय उपस्थित होते हैं । १ अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव २. निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य और ३. साहचर्यात् सदृशस्यैव । इसमें से निरनुबन्ध ग्रहणे न सानुबन्धकस्य न्याय, उसका प्रतिपक्षी 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन' न्याय होने से निर्बल है, जबकि 'साहचर्यात् सदृशस्यैव' न्याय की प्रवृत्ति के लिए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि पूर्व साहचर्य और पर साहचर्य में से परसाहचर्य बलवान् है । अत: उसकी प्रवृत्ति होगी किन्तु यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है । कहीं भी, किसी भी स्थान पर ऐसे दो प्रकारों के साहचर्य का स्वीकार करके पर साहचर्य को बलवान् नहीं बताया गया है । अतः इस प्रश्न के बारे में ज्यादा विचार - विमर्श करने की आवश्यकता है।
शास्त्रकार ने शास्त्र में इस न्याय का स्पष्ट रूप से निर्देश नहीं किया है, तथापि कहीं कहीं इस न्याय की प्रवृत्ति की है। पाणिनीय व्याकरण में इस न्याय की चर्चा करते हुए, कैयट ने उसके अस्तित्व का और ज्ञापकसिद्धत्व का स्वीकार किया है किन्तु नागेश ने साहचर्य की परिभाषा का आश्रय करके, उसका खंडन किया है और सिद्धहेम में भी इस न्याय का कोई बलवान् ज्ञापक प्राप्त नहीं है । इस न्याय की वृत्ति में कथित ज्ञापक में, ऊपर बताया उसी तरह ज्ञापकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है।
अतः आचार्यश्री की प्रवृत्ति ही इस न्याय का आधार है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए । यह न्याय चान्द्र, कातंत्र, कालाप, जैनेन्द्र व भोज परम्परा में प्राप्त नहीं है ।
॥ ६१॥ प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः प्राकरणिकस्यैव ॥ ४॥ 'प्राकरणिक' अर्थात् प्रस्तुत प्रकरण सम्बन्धित और 'अप्राकरणिक' अर्थात् अन्य प्रकरण सम्बन्धित । प्राकरिणक और अप्राकरणिक दोनों का ग्रहण संभव हो तो प्राकरणिक का ही ग्रहण करना चाहिए।
__ 'प्राकरणिक' शब्द की व्युत्पत्ति बता रहे हैं । 'प्रकरण' अर्थात् 'स्वाधिकार', 'प्रकरणेन चरति' वाक्य में 'प्रकरण' शब्द से 'चरति' अर्थ में 'चरति' ६/४/११ सूत्र से 'इकण्' प्रत्यय होगा। 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः'-७/४/१ से आद्य स्वर की वृद्धि होने पर 'प्राकरणिक' शब्द बनेगा।
___ 'प्राकरणिक' अर्थात् स्वाधिकार में कथित प्रत्यय आदि और अन्य के अधिकार में कथित प्रत्यय आदि, विवक्षित सूत्र की अपेक्षा से अप्राकरणिक कहा जाता है ।
प्राकरणिक और अप्राकरणिक दोनों का ग्रहण संभवित हो तो प्राकरणिक अर्थात् स्वाधिकार
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