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________________ १५४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) यह न्याय अनित्य है । अतः 'ऋहीघ्राध्रात्रोन्दनुदविन्तेर्वा' ४/२/७६ में 'ऋ' से भ्वादि और अदादि दोनों गण के 'ऋ' धातु का ग्रहण होता है। इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बताया गया है। वस्तुतः इस न्याय की अनित्यता का कोई फल नहीं है, क्योंकि 'ऋहीघ्राधा'-४/२/७६ में ऋण के अर्थविशेष द्वारा ही उसका नियंत्रण हुआ है और इस प्रकार किसी के भी ग्रहण में विशेषण का अभाव ही कारण है, अतः दोनों का ग्रहण हो सकता है । सिद्धहेम की परम्परा में 'श्य, शव्' इत्यादि विकरण प्रत्यय होते हैं । पाणिनीय परम्परा में 'शप्' इत्यादि होते हैं । पाणिनीय तंत्र में अदादि धातु से 'शप्' विकरण प्रत्यय करके बाद में उसका लोप किया जाता है, जबकि सिद्धहेम में पहले से ही विकरण प्रत्यय के विधान में ही अदादि का वर्जन किया है । अतः अन्य तंत्र में 'लुग्विकरणालुग्विकरणयोरलुग्विकरणस्य' ऐसा न्याय है। इस न्याय के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी द्वारा किये गये विचार-विमर्श का सार इस प्रकार है : 'शासस्हनः शाध्येधिजहि' ४/२/८४ सूत्र में अदादि के 'अस्' धातु का ग्रहण करने के लिए 'शास्' और 'हन्' धातु के साहचर्य का आधार लिया है। उसके बारे में विचार करने पर लगता है कि यहाँ किसी भी एक 'अस्' का ग्रहण करना है तो किसका ग्रहण करना उसका निर्णय करने के लिए साहचर्य का आश्रय करना ही पड़ेगा और उसके द्वारा यह न्याय ज्ञापन करना संभवित नहीं है। ज्ञापक बनाने के लिए इस न्याय के अभाव में उसे व्यर्थ बनाना पड़ता है, किन्तु उसी प्रकार वह व्यर्थ नहीं बन सकता है । जैसे इस न्याय के अस्तित्व में अनदादि का ही ग्रहण संभवित है, अतः यहाँ साहचर्य का आश्रय आवश्यक है, वैसे इस न्याय के अभाव में भी दो में से किसका ग्रहण करना, उसका निर्णय करना मुश्किल होने से भी साहचर्य का आश्रय लेना ही पड़ता है । इस प्रकार वह किसी भी तरह व्यर्थ नहीं बन पाता है। अतः वह ज्ञापक नहीं बन सकता है। अतः इस न्याय के बल से, साहचर्य के आश्रय का अनुमान करके इस न्याय को सिद्ध करना उचित नहीं है । अत एव 'गमहनविद्लविशदृशो वा' ४/४/८४ में लाभार्थक तुदादि के विद् धातु का ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'सानुबन्ध ‘पाठ किया है, अन्यथा इस न्याय द्वारा ही तुदादि के लाभार्थक विद् धातु का ही ग्रहण होनेवाला है, अत: सानुबन्ध निर्देश व्यर्थ होता है क्योंकि 'सत्ता' और 'विचार' अर्थवाला 'विद्' धातु अनदादि होनेपर भी आत्मनेपदी है अतः उससे 'क्वसु' प्रत्यय होनेवाला ही नहीं है। अब 'गमहनविद्लु' ४/४/८४ में सानुबन्ध निर्देश क्यों किया, उसकी स्पष्टता करते हुए लघुन्यासकार कहते है कि यहाँ 'विद्' स्वरूप में निरनुबन्ध निर्देश करने से, ऊपर बताया उसी प्रकार इस न्याय से लाभार्थक तुदादि के ही विद्लु धातु का ही ग्रहण होगा ऐसा न कहना क्योंकि 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' न्याय से 'तुदादि' के लाभार्थक 'विद्लु' धातु का ग्रहण संभव नहीं है, और प्रस्तुत न्याय और 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' न्याय परस्पर विरुद्ध होने से, उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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