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________________ १५० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) वही डतर-डतम ग्रहण सार्थक ही है, व्यर्थ नहीं है । अत: वह ज्ञापक नहीं बन सकता है। यह मान्यता भी सही प्रती त नहीं होती है क्योंकि ऊपर बताई वही व्याख्या सूत्रकार ने नहीं दी है, लघुन्यासकार ने ही दी है। सूत्रकार के मतानुसार सर्वादि गणपाठ में जो पठित हो उसे ही सर्वादित्व प्राप्त होता है । यहाँ सर्वादि की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए । 'सर्वः आदिर्यस्य सः सर्वादिः।' डतर और डतम के, सर्वादि गण में किये गये पाठ को अन्य प्रकार से सार्थक बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि श्रीहेमचंद्राचार्यजी ने भी डतर-डतम ग्रहण का अन्य प्रयोजन/हेतु बताते हुए कहा है कि 'अन्यादि लक्षणदार्थं च । उसका अर्थ इस प्रकार है । डतर और डतम प्रत्ययान्त शब्द से पर आये हुए 'सि' और 'अम्' प्रत्यय का 'पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' १/४/५८ से द आदेश करने के लिए यहाँ डतर-डतम का ग्रहण किया है। यदि डतर-डतम का यहाँ ग्रहण न किया जाय तो 'पञ्चतोऽन्यादेः' १/४/५८ से कथित द् आदेश नहीं होगा । अतः डतर-डतम ग्रहण का यहीं प्रयोजन होने से इस न्याय के अभाव में भी वह सार्थक है । अतः वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है। यद्यपि आगे आचार्यश्रीहेमचंद्रसूरिजी ने स्वयं 'डतर-डतम ग्रहण' के नियमार्थत्व की शंका की है और बाद में उसके नियमार्थत्व का समर्थन भी किया है । वह इस प्रकार है :- वह (ऊपर बताया गया) प्रयोजन होने से स्वार्थिक प्रत्ययान्त-(अन्य) सर्वादि में सर्वादित्व के अभाव का वह कैसे ज्ञापन कर सकता है ? अन्यथा अनुपपद्यमान अर्थात् जो व्यर्थ हो वही ज्ञापक हो सकता है और ऊपर बताया उसी प्रकार डतर-डतम ग्रहण की अन्यथा अनुपपत्ति नहीं है । इसी शंका का प्रत्युत्तर देते हुए वे स्वयं कहते हैं कि केवल 'पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' १/४/५८ से होनेवाले 'द्' आदेश के लिए ही डतर-डतम का ग्रहण नहीं किया गया है किन्तु अन्य स्वार्थिक प्रत्ययान्त को सर्वादित्व की प्राप्ति न हो उसके लिए भी डतर-डतम का ग्रहण किया गया है। सर्वादि गण में पाठ करने से असंज्ञा में ही सर्वादित्व की प्राप्ति होती है । संक्षेप में डतर-डतम का सर्वादि गण में और अन्यादि पंचक में ग्रहण किया गया है, उसमें से अन्यादि पंचक में किया गया पाठ 'द्' आदेश से चरितार्थ है, तथापि सर्वादि गण में किया गया पाठ व्यर्थ है और वही व्यर्थ होकर अन्य स्वार्थिक प्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों में सर्वा करता है। श्रीलावण्यसूरिजी, श्रीहेमचन्द्रचार्यजी द्वारा की गई 'नियमार्थत्व' की इसी स्पष्टता/समाधान को स्वीकार नहीं करते हैं। वे तो कहते हैं कि डतर-डतम का ग्रहण, अन्यादि पंचक से होनेवाले 'द्' आदेश के लिए ही है, अतः स्वार्थिकप्रत्ययान्त सर्वादि के सर्वादित्व का निषेध करने में वह समर्थ नहीं हो सकता है, अतः वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है। अन्त में वे कहते हैं कि आचार्यश्री के वचन के कारण, डतर-डतम ग्रहण के नियमार्थत्व का स्वीकार करने पर भी वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है और शायद इस न्याय का अनन्यथासिद्ध प्रयोजन हो तो इस न्याय का वाचनिक न्याय के स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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