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________________ अथ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनगत __ पण्डित श्रीहेमहंसगणिभिः समुच्चितानां न्यायानां द्वितीयो वक्षस्कारः ॥ ॥५८ ॥ प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम् ॥ १॥ प्रकृति का ग्रहण किया हो तो स्वार्थिकप्रत्ययान्त का भी ग्रहण होता है । यहाँ प्रकृति धातु स्वरूप और नाम स्वरूप दोनों का ग्रहण संभवित है। केवल प्रकृति और स्वार्थिकप्रत्ययान्त प्रकृति में बहुत कुछ अन्तर होता है और अत एव 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' न्याय के कारण मूल प्रकृति के स्वरूप का ही ग्रहण संभव है किन्तु स्वार्थिकप्रत्ययान्त का स्वरूप मूलप्रकृति से भिन्न होने के कारण, उसका ग्रहण संभव नहीं था, उसका ग्रहण करने के लिए यह न्याय है । यहाँ 'स्वार्थिकप्रत्ययान्तानाम्' का विशेष्य 'प्रकृतीनाम्' अध्याहार है। उसमें केवल धातु-स्वरूप प्रकृति के ग्रहण के विषय में 'स्वार्थिक प्रत्ययान्त' का ग्रहण इस प्रकार है । उदा. 'विनिमेयद्यूतपणं पणव्यवहोः २/२/१६ में 'पणि' रूप से केवल 'पणि' धातु का ही ग्रहण प्राप्त है, तथापि स्वार्थिक 'आय' प्रत्ययान्त 'पणि' धातु का भी ग्रहण होता है, अत एव 'शतस्य शतं वा पणिष्ट' प्रयोग की तरह 'शतस्य शतं वा अपणायीद्' इत्यादि प्रयोग में भी 'विनिमेयद्यूतपणं.....' २/२/१६ से ही पणि धातु के व्याप्य को विकल्प से कर्म संज्ञा होगी । जब कर्म संज्ञा नहीं होगी तब 'शत' शब्द से 'शेष' में सम्बन्ध में 'शेषे' २/२/८१ से षष्ठी होगी । केवल नाम रूप प्रकृति के ग्रहण से स्वार्थिकप्रत्ययान्त नाम का भी ग्रहण होता है । उदा. 'ग्रामात् परस्मिन् देशे वसति' प्रयोग में जैसे केवल 'पर' शब्द के प्रयोग में 'प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्द २/२/७५ से 'ग्राम' शब्द से पंचमी हुई है वैसे 'परावरात्स्तात्' ७/२/११६ सूत्र से स्वार्थ में 'स्तात्' होने पर वही 'स्तात्' प्रत्ययान्त 'पर' शब्द (परस्तात् शब्द) के योग में भी ग्राम शब्द से प्रभृत्यन्यार्थदिक शब्द' - २/२/७५ से दिकशब्द के योग में होनेवाली पंचमी विभक्ति होगी और 'ग्रामात परस्तात वसति' प्रयोग सिद्ध होगा। सर्वादि गण में नियम के लिए डतर और डतम प्रत्यय का ग्रहण किया, वह इस न्याय का ज्ञापक है। डतर और डतम प्रत्यय के ग्रहण का अर्थ/प्रयोजन यही है- डतर और डतम प्रत्यय हैं और केवल प्रत्ययों का सर्वादित्व कभी भी संभव नहीं है, अतः प्रत्यय में प्रकृति का आक्षेप करने से इस प्रकार अर्थ होता है कि जो भी यत्, तत् किम्, अन्य, एक इत्यादि शब्द से स्वार्थिक डतर या डतम प्रत्ययों का संभव हो वही, डतर और डतम प्रत्ययान्त यद् आदि शब्दों का ग्रहण होता है । अर्थात् उन शब्दों को सर्वादित्व प्राप्त होता है और 'यतरस्मै, यतमस्मात्' इत्यादि प्रयोग में स्मै इत्यादि ૧૪ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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