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________________ १२४ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) वह य्वदाश्रित है और दीर्घ होने के बाद 'इस्वस्य तः पित्कृति' ४/४/११३ प्रवृत्त नहीं होगा। यह न्याय अनित्य है। इस न्याय के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि कुछेक प्राचीन वैयाकरण मानते हैं कि यह न्याय, ऐसे/इस प्रकार के लक्ष्यानुसार प्रवृत्त होता है, अतः इसका कोई ज्ञापक नहीं है। जबकि नवीन वैयाकरण मानते हैं कि इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है और वह इस प्रकार है । 'उपश्चि + क्त्वा' में 'उपश्वि + यप्' होने के बाद पूर्व में बताया उस प्रकार त् का आगम हस्वान्त प्रकृति आश्रित होने से प्राकृत और य्वत् सस्वरान्तस्थाश्रित होने से वार्ण है, तथापि त् का आगम केवल हुस्वस्वराश्रित होने से उसे वार्ण माना जा सकता है और य्वृद् ‘यजादिवचेः किति' ४/१/७९ से यजादि स्वरूप प्रकृति को उद्देश्य बनाकर कहा गया होने से प्राकृत कहा जा सकता है और इस प्रकार उपर्युक्त 'वार्णात्प्राकृतम्' न्याय से निर्वाह हो सकता है, अतः इस न्याय की कोई आवश्यकता मालूम नहीं देती। श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय के ज्ञापक के स्वरूप में ऐसे प्रयोगों को ही मानते हैं। इन दोनों न्यायों का भिन्न-भिन्न न्याय के स्वरूप में विधान भोज व्याकरण से शुरू हुआ है। इसके अलावा इससे पूर्व किसी भी व्याकरण या परिभाषाग्रंथों में यह परिभाषा/न्याय के रूप में उपलब्ध नहीं है । इसके बदले में पाणिनीय परम्परा में 'संप्रसारणं तदाश्रयं च कार्य' न्याय दिखाई देता है। ॥४६॥ उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः ॥ उपपदविभक्ति से कारकविभक्ति बलवती है। बलवती शब्द यहाँ अध्याहार है । जब एक ही शब्द से उपपदविभक्ति और कारकविभक्ति दोनों एकसाथ होने की प्राप्ति हो और दोनों भिन्न-भिन्न हो तो कारकनिमित्तक विभक्ति बलवती मानी जाती है । उदा. 'देवान् नमस्यति' । यहाँ 'शक्तार्थवषड्नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाभिः' २/२/६८ से नमस् के योग में 'देव' शब्द को चतुर्थी विभक्ति हो सकती है किन्तु 'देव' शब्द 'नमस्यति' का कर्म होने से कर्म में द्वितीया विभक्ति होगी। इस न्याय का ज्ञापक पूर्व न्याय में बताया उसी तरह ऐसे प्रयोग ही है। यह न्याय अस्थिर है और इसका ज्ञापक 'क्रुद्रुहेासूयाथै यं प्रति कोपः' २/२/२७ सूत्र में 'यस्मै कोपः' के स्थान पर 'यं प्रति कोपः' स्वरूप किया गया निर्देश ही है क्योंकि कुप् धातु के योग में इसी सूत्र से 'यद्' से संप्रदान संज्ञा होकर चतुर्थी विभक्ति हो सकती है तथापि 'भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः' २/२/३७ से द्वितीया हुई है। यदि यह न्याय नित्य होता तो 'यं प्रति कोपः' के स्थान पर 'यस्मै प्रति कोपः' प्रयोग होता और उसमें चतुर्थी होने के बाद प्रति' शब्द व्यर्थ होने पर निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपाय:' न्याय से 'प्रति' शब्द निवृत्त होने पर 'यस्मै कोपः' होता, किन्तु यह न्याय अनित्य होने से चतुर्थी का बाध होकर द्वितीया हुई है, अत: 'यं प्रति कोपः' ऐसा निर्देश किया गया है। उपपदविभक्ति अर्थात् अन्य किसी नाम या पद या अव्यय के योग में उसके साथ आये हुए शब्द से किसी निश्चित विभक्ति का होना वह, और कारकविभक्ति अर्थात् किसी भी शब्द कर्ता, कर्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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