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________________ ९१ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३१) ...३/२/५१ से पुम्वद्भाव होगा और 'दारदयति' रूप होगा । यहाँ यदि पुम्वद्भाव न किया जाय तो 'दारदयति' रूप सिद्ध नहीं हो सकता, अतः इस रूप के लिए पुम्वद्भाव सार्थक है इसलिए वही सूत्र ज्ञापक नहीं बन सकता । वस्तुतः 'जातिश्च णि'....३/२/५१ सूत्र से होनेवाला पुम्वद्भाव कदापि ज्ञापक नहीं बन पाता है। श्रीलावण्यसूरिजी ने 'केचित्तु' कहकर किसका मत बताया है, वह भी स्पष्ट नहीं होता है। बृहवृत्ति और लघुन्यास में 'जातिश्च णि'.....३/२/५१ सूत्र को इसी न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में बताया नहीं है किन्तु इसी सूत्र की चर्चा से ऐसा भ्रम हो सकता है। उपर्युक्त दोनों उदाहरण 'एनीमाचष्टे एतयति' और 'पट्वीमाचष्टे पटयति' में 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से अन्त्य ई का लोप होता है किन्तु 'एनी' और 'पट्वी' का स्त्रीत्व दूर नहीं होता है अतः 'डी' का सन्नियोगशिष्ट 'त' के 'न' की और ‘पट्वी' में 'उ' के 'व' की निवृत्ति नहीं हो सकती है, अतः 'न' का 'त' तथा 'व' का 'उ' करने के लिए 'डी' की निवृत्ति आवश्यक है, अत एव 'डी' के लोप द्वारा या पुम्वद्भाव द्वारा 'ङी' की निवृत्ति करनी चाहिए । अर्थात् स्त्रीत्व को ही दूर करना चाहिए । यहाँ पुम्वद्भाव द्वारा स्त्रीत्व दूर किया है । अतः इसके निमित्त से हुआ 'त' का 'न' और 'उ' का 'व' भी निवृत्त होगा । यहाँ निमित्ताभावे नैमित्तिकस्या-' ॥२९॥ न्याय भी प्रवृत्त नहीं होगा क्योंकि निमित्त स्वरूप 'डी' का लोप किसी भी सूत्र से नहीं होता है । अतः इन दोनों उदाहरणों में श्रीलावण्यसूरिजी ने पुम्वद्भाव की व्यर्थता बतायी है, वह अनुचित है। वस्तुतः इन दोनों उदाहरण में भी पुम्वद्भाव सार्थक ही है, अतः 'जातिश्च णि...' ३/२/ ५१ सूत्र को इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक बताना और उसका खंडन करना दोनों ही अनुचित हैं। यह न्याय कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति, परिभाषापाठ और कालाप परिभाषापाठ को छोड़कर सर्वत्र उपलब्ध है । कातन्त्र की भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति में यह न्याय ‘एकयोगनिर्दिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः' के रूप में है। ॥३१॥ नान्वाचीयमाननिवृतौ प्रधानस्य ॥ 'अन्वाचीयमान' अर्थात् गौण की निवृत्ति होने पर मुख्य की निवृत्ति नहीं होती है। 'अनु' अर्थात् पीछे/ बाद में पश्चात्, 'आचीयमान' अर्थात् होनेवाला 'अन्वाचीयमान' अर्थात् बाद में होनेवाले कार्य का अभाव होने पर मुख्य कार्य का अभाव नहीं होता है किन्तु मुख्य कार्य के अभाव में गौण कार्य का भी अभाव होता है । पूर्वन्याय से प्राप्त 'यादृच्छिकता' का निषेध करने के लिए यह न्याय है। ___ उदा. बुद्धीः, धेनूः, यहाँ पुल्लिङ्गत्व के अभाव के कारण 'शसोऽता....' १/४/४९ से होनेवाले 'स' का 'न्' नहीं होगा, किन्तु प्रधानतया उक्त दीर्घ तो होगा ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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