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________________ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण ) 'पदान्तत्व' आदि निमित्तक कार्य होता हो वहाँ इस न्याय का उपयोग नहीं होता है । उदा. 'नशो वा' २/१/७० से 'श्' का 'ग्' करते समय सूत्र में धातु का स्वरूप से ग्रहण किया है, तथापि उससे सम्बन्धित ही प्रत्यय पर में आने पर कार्य होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, अतः 'प्रनरभ्याम्' आदि में 'श्' का 'ग्' निःसंकोच हो सकता है । 'स्वरूपग्रहणे' कहने से 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये' - २/१/५० से होनेवाले कार्य में इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि वहाँ केवल 'धातुत्व' से ही धातु का ग्रहण किया गया है किन्तु 'धातुत्वव्याप्यानुपूर्व्यवछिन्नत्व' से धातु का ग्रहण नहीं किया है। अतः 'नियों, निय:' इत्यादि में 'नाम' से विहित प्रत्यय पर में आने पर भी ' धातोरिवर्णोवर्णस्ये- '२/१/५० से ही 'इय्' आदेश होगा । ८० पाणिनीय परम्परा में 'मृजेर्वृद्धि:' ( पा.सू. ७/२/११४) के महाभाष्य में इस न्याय की चर्चा करते हुए कहा है कि जहाँ किसी धर्म द्वारा धातु का ग्रहण किया गया हो वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होगी, ऐसा मानकर, इस न्याय में 'स्वरूपग्रहणे' शब्द के स्थान पर 'कार्यमुच्यमानं' शब्द रखा है, तथापि पाणिनीय परम्परा और सिद्धहेम की परम्परा में प्रक्रिया भेद होने से, इस न्याय के इसी स्वरूप में कोई क्षति नहीं है । श्रीमहंसगणि कहते हैं कि 'वस्तुतः कोई आदेश किया गया हो, उसका स्थानिवद्भाव होता है, जबकि 'क्विप्' का लोप, 'लुक्' या 'लुब्' रूप आदेश नहीं है किन्तु 'अप्रयोगीत् ' १/ १ / ३७ सूत्र से ही इसका लोप होता है तथा 'न वृद्धिश्चाविति...... ' ४ / ३ / ११ सूत्र के न्यास में कहा है कि " न हि क्विपो लुग् लुब् वा किन्त्वप्रयोगीत्" अर्थात् 'क्विप्' का स्थानिवद्भाव नहीं होगा, किन्तु यही मत लघुन्यासकार का ही है सूत्रकार आचार्यश्री तो वृत्ति में 'अदर्शनं लुक्' कहते हैं, अतः 'क्विप्' का 'अदर्शन' लुक् ही है, अतः उसका भी स्थानिवद्भाव होता है, अत एव आचार्यश्री ने 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि ' ४ / ३ / ९७ सूत्र की वृत्ति में 'शं सुखं तिष्ठति शंस्थाः पुमान् 'में 'क्विप्' का लुक् हुआ है, उसका स्थानिवद्भाव प्राप्त है किन्तु 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/३/९७ से 'ई' नहीं होगा क्योंकि यहाँ साक्षात् व्यञ्जन का अभाव है और सूत्र में 'व्यञ्जने' शब्द साक्षात् व्यञ्जन के ग्रहण के लिए ही है । इस प्रकार श्रीमहंसगणि ने 'क्विप्' के स्थानिवद्भाव की आशंका की है । लघुन्यासकार के मत में स्थानिवद्भाव नहीं होगा, जबकि श्रीहेमचन्द्राचार्यजी के मत में स्थानिवद्भाव होगा, तथापि श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने 'रज्जसृड्भ्याम्' में स्थानिवद्भाव नहीं किया है । अतः श्रीमहंसगणि ने इस न्याय की वृत्ति में, उपर्युक्त शब्दों से स्थानिवद्भाव के अनित्यत्व की आशंका व्यक्त की है । किन्तु न्यासकार और वृत्तिकार का आशय इस प्रकार है । यहाँ 'न वृद्धिश्चाविति' ....४/ ३ / ११ सूत्रगत 'लोप' शब्द से साक्षात् लोप अर्थवाचक कोई भी 'लुक्, लुब्' या 'लोप' शब्द द्वारा निर्दिष्ट कार्य का ही यहाँ ग्रहण करना, ऐसा नहीं मानना किन्तु अदर्शनविधायक पद द्वारा विहित लोप यहाँ ग्रहण करना चाहिए ऐसा किसी का कहना है । और न्यासकार ने भी यही बात बतायी है, केवल इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि न्यासकार को 'लुप्, लुक् ' और ' इत्' संज्ञा का भेद अभिप्रेत है । 'लुक्, लुप्, लोप,' और 'इत्' चारों शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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