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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २६) में आने पर कार्य करना है, वही 'दुष्' धातु दूसरे प्रयोग में नहीं है । वहाँ 'क्विप्' प्रत्ययान्त 'दुष्' धातु नाम होता है, बाद में 'नामधातु' प्रक्रिया द्वारा, वही 'दुष्' से जब ‘णिच्' प्रत्यय होता है, तब वह 'दुष्' धातु सम्बन्धित होने पर भी 'ऊद् दुषो णौ' ४/२/४० से निर्दिष्ट कार्य नहीं होगा ।
तथा 'स्रष्टा, द्रष्टा' इत्यादि प्रयोग की तरह 'रज्जुसृड्भ्याम्, दृग्भ्याम्' इत्यादि प्रयोग में, 'अ: सृजिदृशोऽकिति' ४/४/१११ से धातु के स्वर से 'अ' नहीं होगा । यद्यपि यहाँ 'क्विप्' प्रत्यय होने से, उसका स्थानिवद्भाव करने से, अकार की प्राप्ति का ही अभाव है । अतः इस न्याय की वहाँ कोई जरूरत नहीं है, तथापि स्थानिवद्भाव अनित्य होने से या ऐसे ही किसी अन्य कारण से, आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने, यहाँ, इस न्याय की प्रवृत्ति बतायी होने से, हमने ( श्रीहेमहंसगणि ने) भी ऐसा कहा है।
प्रत्ययों के विशेषण की अनुक्ति ही, प्रस्तुत न्याय का ज्ञापक है। उदा. 'दूषयति, स्रष्टा, द्रष्टा' इत्यादि प्रयोग में, धातु सम्बन्धित प्रत्यय पर में होने पर 'ऊ' तथा 'अकार' का आगम हुआ दिखायी देता है, किन्तु 'दुषयति, रज्जुसृङ्भ्याम् दृग्भ्याम्' इत्यादि में नाम-सम्बन्धित और धातु-सम्बन्धित प्रत्यय होने पर भी, उसे नाम-सम्बन्धित मानकर 'ऊ' तथा 'अ' का आगम किया नहीं है, तथापि यहाँ 'ऊद् दुषो णौ' ४/२/४० और 'अ: सृजिदृशोऽकिति ४/४/१११ में प्रत्यय-सम्बन्धित कोई विशेषण रखा नहीं है, वह इस न्याय के अस्तित्व को मानकर कहा नहीं है, अत: वह इस न्याय का ज्ञापक है।
इस प्रकार आगे भी विशेषण की अनुक्ति और ज्ञापकता स्वयं समझ लेना । इस न्याय की अनित्यता मालूम नहीं देती है ।
यहाँ 'रज्जुसृड्भ्याम्' प्रयोग में क्विप् का स्थानिवद्भाव होगा कि नहीं उसकी विशेष चर्चा श्रीहेमहंसगणि ने 'न्यायसङ्ग्रह' के 'न्यास' में तथा श्रीलावण्यसूरिजी ने प्रस्तुत न्याय की टीका 'न्यायार्थसिन्धु' तथा न्यास सदृश 'तरङ्ग' में की है । “यहाँ कोई ऐसी शंका करें कि इस न्याय की यहाँ कोई जरूरत नहीं है क्योंकि 'रज्जुसृड्' और 'भ्याम्' के बीच, 'लुप्त क्विप्' प्रत्यय का स्थानिवद्भाव करने से 'क्विप्' का व्यवधान आयेगा, किन्तु यह बात उचित नहीं है। यहाँ अकित् धुडादि प्रत्यय के कारण 'अ' का आगम होता है, धुट् वर्ण होने से, 'अ' का आगम वर्णाश्रित विधि मानी जायेगी और वर्णविधि में स्थानिवद्भाव की प्रवृत्ति नहीं होती है वह 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ सूत्र में बताया ही है । अतः श्रीहेमहंसगणि का कथन "यद्यपि चात्र क्विपः कित्प्रत्ययस्य स्थानिवद्भावकरणे अकारप्राप्तिरेवाभावान्नास्त्येतन्न्यायापेक्षा । तथापि स्थानिवद्भावस्यानित्यत्वादिना केनाऽपि हेतुना आचायैरेतन्न्यायप्रवृत्तिदर्शितेत्यतोऽत्राऽपि तथैवोचे ।" उचित नहीं लगता है।
यहाँ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने उपर्युक्त कारण से, "क्विप्' का स्थानिवद्भाव नहीं होने से ‘रज्जुसृड्भ्याम्' में इस न्याय की प्रवृत्ति बतायी, वह उचित ही है।
जहाँ धातु से प्रत्ययनिमित्तक कार्य होता हो वहाँ ही इस न्याय का उपयोग होता है । जहाँ
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