SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २२) प्राक्प्रयोग होगा अर्थात् वह पूर्वपद के रूपमें आयेगा और 'द्रव्य' मुख्य होने से, ‘उत्पल' शब्द उत्तरपद के रूप में आयेगा । किन्तु यह न्याय भी 'गौणमुख्ययोर्मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः ।' जैसा होने से उसमें ही इस न्याय का समावेश हो जाता है, क्योंकि 'विशेषण' का प्राक्प्रयोग भी एक प्रकार का विशेष कार्य ही है। इस न्याय के प्रतिउदाहरण के रूप में दिये गए 'प्रत्यष्ठायि कठकालापाभ्यां' प्रयोग को तथा श्रीहेमहंसगणि की मान्यता को श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार नहीं करते हैं। इस उदाहरण के बारे में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ भाव में प्रत्यय का विधान होने से 'कठ' और 'कालाप' का क्रिया के साथ कर्ता के रूप में सम्बन्ध होने पर भी, भाव (क्रिया) की ही प्रधानता होने से (और कर्ता उसका अनुसर्ता होने से ) कर्ता मुख्य नहीं है । श्रीलावण्यसूरिजी ने इसका निषेध करते हुए कहा है कि न्याय का व्यापार दो प्रकार का होता नहीं है। एक बार न्याय का आधार लेकर, कर्ता के रूप में सम्बन्ध स्थापित करना और दूसरी बार, उसी न्याय के व्यापार का अभाव मानकर कर्ता के सम्बन्ध को दूर करना उचित नहीं है । केवल भाव में ही प्रत्यय करने से, कर्ता की मुख्यता दूर नहीं होती है, क्योंकि उसी अवस्था में भी कर्ता, कारक के रूप में मुख्य ही रहता है किन्तु गौण नहीं होता है । केवल भाव में किये गये प्रत्यय से कर्ता की मुख्यता कैसे दूर हो सकती है ? उसी प्रकार से कर्मणि प्रयोग में भी कर्ता की मुख्यता नहीं हो सकती है क्योंकि यहाँ भी प्रत्यय से कर्ता उक्त नहीं है । अतः क्या यहाँ भी कर्ता गौण हो जाता है ? किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी की यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है। सामान्यतया एक सिद्धांत ऐसा है कि मुख्य को प्रथमा विभक्ति होती है और आख्यात या कृत्प्रत्यय से उक्त हो, उसे मुख्य कहा जाता है । अतः आख्यात या कृत्प्रत्यय से उक्त न हो, वह गौण माना जाता है । यहाँ व्याकरणशास्त्र में इस प्रकार की व्यवस्था है । अतः कर्मणि या भावे प्रयोग में, कर्ता, आख्यात या कृत्प्रत्यय से उक्त न होने से, मुख्य नहीं किन्तु गौण माना जाता है । वस्तुतः कर्ता कदापि गौण होता ही नहीं है और श्रीलावण्यसूरिजी की यह बात शतप्रतिशत सत्य होने पर भी, व्याकरणशास्त्र निर्दिष्ट व्यवस्था और विवक्षा भी, उतनी ही प्रमाणित/प्रमाणभूत होने से कर्मणि या भावे प्रयोग में कर्ता को गौण ही मानना चाहिए, ऐसी श्रीहेमहंसगणि की मान्यता शायद होगी, ऐसा लगता है। कुछेक लोगों का कहना है कि यहाँ उक्त और अनुक्त की व्यवस्था से ही कार्य चल सकता है, अतः उक्त को मुख्य और अनुक्त को गौण नहीं मानना चाहिए । सिद्धहेम बृहवृत्ति के लघुन्यास में, इसी सूत्र की चर्चा करते हुए न्यासकार ने इसी न्याय का प्रयोग करके बताया है कि ('स्था' धातु अकर्मक होने से) भावे प्रयोग में, कर्ता अनुक्त होने से गौण होगा, अतः 'प्रत्यष्ठायि कठकालापाभ्यां' प्रयोग ही होगा, किन्तु समाहार द्वन्द्व होकर एकवचन नहीं होगा। श्रीहेमहंसगणि ने 'गौण' और 'मुख्य' की कोई व्याख्या बताई नहीं है। कोई भी शब्द गौण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy