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________________ ६५ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २१) होने से अन्तरङ्ग कार्य है। अतः यदि यह न्याय न होता तो पूर्व के न्याय से 'उ' का 'ओ' करते समय, 'उ' बहिरङ्ग कार्य होने से असिद्ध होता और 'ओ' होता ही नहीं किन्तु स्वयं आचार्यश्री ने इस प्रकार निर्देश किया है, उससे ज्ञापित होता है कि यहाँ 'न स्वरानन्तर्ये' न्याय है। इस न्याय से पूर्वन्याय का बाध होने से 'उ' असिद्ध नहीं होगा। प्रस्तुत न्याय की अनित्यता दिखायी नहीं पडती है । 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्के' न्याय, स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ और 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' ७/४/११० के प्रकार का है, जबकि यह 'न स्वरानन्तर्ये' न्याय, 'न सन्धि-ङी'.....७/४/१११ का सजातीय है। यहाँ पूर्व के 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय के तीनों पद की अर्थात् समग्र न्याय की अनुवृत्ति समझ लेना । अन्यथा यहाँ 'न' असम्बद्ध बन जाता है। इन दोनों न्याय में ज्ञापक की अपेक्षा से पौर्वापर्य सम्बन्ध दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि 'असिद्धं बहिरङ्ग-' न्याय का ज्ञापक 'न सन्धिडी'....७/४/१११ सूत्रगत 'द्विग्रहण' है, जबकि 'न स्वरानन्तर्ये' न्याय का ज्ञापक वृत्त्यन्तोऽसषे' १/ १/२५ सूत्र स्वयं है। इन दोनों ज्ञापक के बीच बहुत ही अन्तर होने से, दोनों न्याय भिन्न-भिन्न प्रदेश में स्थित होने से, दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं। किन्तु उनकी यह बात उचित नहीं लगती है। न्याय/परिभाषाएँ समग्र शास्त्र को अवछिन्न करती है/लागु होती है । अत: उनमें से अमुक केवल प्रथम अध्याय के लिए है और अमुक केवल सातवें अध्याय के लिए ही है ऐसा निर्णय नहीं हो सकता है और एक ही न्याय का विभिन्न अध्यायों में उपयोग किया है तथा ज्ञापक भी क्वचित् एक से अधिक स्थान पर मिलते हैं तब वे ज्ञापक भी विभिन्न अध्यायों में हो सकते हैं । अतः पाणिनीय परम्परानुसार 'यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम्' के पक्ष को स्वीकार करके, इन दोनों न्यायों के ज्ञापकों के बीच बहुत अन्तर होने से अनुवृत्ति संभव नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है, तथापि यहाँ इन दोनों न्यायों के 'सहपाठ' को स्वीकार करके, उन दोनों के बीच-आनन्तर्य का उन्होंने स्वीकार किया है । यह इस प्रकार है। आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी तथा श्रीहेमहंसगणि ने प्रस्तुत न्यायों की सूत्रात्मक पद्धति से रचना की है। अतः एक ही न्याय में आये शब्दों की उनके जैसे या उनके अपवाद स्वरूप न्यायों में फिर से जरूरत होने से उन न्यायों में फिर उसी शब्द की पुनरुक्ति न करनी होती और संक्षेप में बहुत कहा जा सके, इसलिए वैसे सभी न्यायों को एक ही स्थान पर/साथ में रखकर, पौर्वापर्य सम्बन्ध स्थापित किया है । अत एव पूर्वन्याय में स्थित शब्दों की, पर न्याय में अनुवृत्ति हो सकती है, यदि वे समानविषयक हों तो। __पाणिनीय परम्परा में भाष्यकार ने भी असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय के बाद, अब 'नाजानन्तर्ये' न्याय कहूँगा, ऐसा कहा है । यहाँ भी इन दोनों न्यायों के बीच-पौर्वापर्य सम्बन्ध है और इस प्रकार असिद्धं, बहिरङ्गं और अन्तरङ्गे, तीनों शब्द की अनुवृत्ति का सूचन मिल जाता है । 'नागेश' आदि ने भी 'नाजानन्तर्ये बहिष्टव प्रक्लृप्तिः' न्याय में 'अन्तरङ्गे' पद की अनुवृत्ति की है, किन्तु उन्होंने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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