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________________ ६४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) दोनों पदों को जोड़ने के लिए सन्धि आदि कार्य में भी, शब्दों के क्रम का विचार किया जायेगा। अतः उपसर्ग इत्यादि को क्रम की दृष्टि से प्राधान्य प्राप्त होगा। इस प्रकार अन्तरङ्गत्व और बहिरङ्गत्व के निर्णय के लिए शब्द की व्याकरण की दृष्टि से प्रयोग-योग्यता प्राप्त करने की प्रक्रिया स्वयं ही निर्णायक है। इस न्याय के ज्ञापक के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी अपना अभिप्राय/मन्तव्य इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं। 'न सन्धि-ङी....' ७/४/१११ सूत्रगत 'न' पद 'स्थानीवा-' ७/४/१०९ सूत्रगत 'स्थानि' पद के साथ सम्बन्धित है । अतः 'असिद्धं बहिरङ्ग-' न्याय से प्राप्त 'असिद्धत्व' को दूर करने में 'द्विग्रहण' समर्थ नहीं है, ऐसी आशंका हो सकती है । तथापि 'द्वि-ग्रहण' के सामर्थ्य से, प्रकरण से नहीं आये हुए, अनुमित 'स्थानि' का भी निषेध होता है, ऐसा अर्थ स्वीकृत होता है । वस्तुतः 'असिद्ध बहिरङ-' न्याय और 'द्वि-ग्रहण' के बीच अन्योन्याश्रय दोष आता है, क्योंकि न्याय सिद्ध होने पर द्वि-ग्रहण सार्थक बनता है और 'द्वि-ग्रहण' से न्याय की सिद्धि होती है । इस दोष को दूर करने के लिए ऐसा बताया जाता है कि यह न्याय लोकसिद्ध ही है, किन्तु उसके निषेध के लिए द्वि-ग्रहण किया गया है, ऐसा समझकर व्याकरण में भी इसी द्वि-ग्रहण से प्रस्तुत न्याय की प्रवृत्ति अनुमित होती है। ॥२१॥ न स्वरानन्तर्ये ॥ दो स्वर बिल्कुल पास/नज़दीक में आने पर, यदि अन्तरङ्ग कार्य करना हो तो बहिरङ्ग कार्य 'असिद्ध/असद्वत्' नहीं होता है। पूर्व न्याय से प्राप्त 'असिद्धत्व' का यह न्याय निषेध करता है । उदा. इयेष, बभूवुषा । इन दोनों प्रयोग में अनुक्रम से 'इष्' धातु के 'इ' का गुण और 'क्वसु' प्रत्यय का 'उष्' आदेश, दोनों बहिर्व्यवस्थित होने से बहिरङ्ग कार्य है । जबकि 'पूर्वस्यास्वे स्वरे य्वोरियुव्' ४/१/३७ और 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये'-२/१/५० से होनेवाला 'इय्' और 'उव्' पूर्वव्यवस्थित होने से अन्तरङ्ग कार्य है। अतः इन दोनों प्रयोगों में यदि पूर्व न्याय से अन्तरङ्ग कार्यरूप 'इय्' और 'उव्' आदेश करते समय 'इ' का गुण और 'क्वसु' का 'उष्' आदेश असिद्ध होगा तो पर में अस्व स्वर या स्वर नहीं मिलने से 'इय्' और 'उ' आदेश नहीं होंगे। अत: इस न्याय से दो स्वर पास-पास आये होने से 'इय्' और 'उज्' आदेश करते समय 'ए' और 'उष्' दोनों असिद्ध/असद्वत् नहीं होंगे और रूपसिद्धि होगी। 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १/१/२५ सूत्रगत 'वृत्त्यन्तो' निर्देश, इस न्याय का ज्ञापक है । यहाँ अन्तस्' शब्द का 'स्' का 'सो रु:' २/१/७२ से 'रु' हुआ। बाद में 'अतोऽति रोरु:' १/३/२० से 'रु' के 'र' का 'उ' होगा। यह 'उ' पर 'अ' कार निमित्तक है, अतः वह बहिरङ्ग कार्य है, वही 'उ' का पूर्व के 'अ' के साथ मिलकर अवर्णस्येवर्णादि-'१/२/६ से होनेवाला 'ओ', पूर्व 'अ' कारनिमित्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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