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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) यह व्याख्या भी सरल है किन्तु 'कातन्त्र' की व्याख्या जैसी स्पष्ट और सरल नहीं है, साथसाथ यह बात भी उल्लेखनीय है कि शाकटायन व्याकरण की परिभाषावृत्ति में भी इसी प्रकार की व्याख्या दी गई है । केवल 'उत्पद्यते' के स्थान पर 'समुत्पन्नः' शब्द रखा है । 'शेषाद्रिनाथ' ने "परिभाषाभास्कर' में 'सन्निपात' का अर्थ, दोनों का सम्बन्ध किया है । इसकी व्याख्या इस प्रकार है - 'द्वयोः सम्बन्धः सन्निपातः, स: लक्षणं निमित्तं यस्य सः, तद्विघातस्य अनिमित्तम् । अर्थात् 'निमित्त' और 'निमित्ति' दोनों के सम्बन्ध के कारण जो विधि हुई है, वह विधि, उन दोनों के (निमित' और 'निमित्ति' के) सम्बन्ध का घात नहीं करती है।
इस न्याय का कारण बताते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि लोक में/व्यवहार में पितृघातक पुत्र इत्यादि रूप कार्य से कारण-स्वरूप पिता आदि का नाश देखा जाता है किन्तु व्याकरण में प्रायः ऐसा होता नहीं है, इसका ज्ञापन करने के लिए यह न्याय है।
उदा. पपाच, यहाँ परोक्षा' के 'णव्' प्रत्यय के कारण 'द्विर्धातुः परोक्षाङे प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः' ४/१/१ से धातु का द्वित्व होगा और 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक् ४/१/४४ से 'च' का लोप होगा, इस प्रकार ‘पच्' धातु 'अनेकस्वरयुक्त' होने पर 'धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः कृभ्वस्ति चानुतदन्तम् ३/४/४६ से 'ण' का 'आम्' होने की प्राप्ति है किन्तु वही 'आम्', 'णव्' का विघातक होने से, नहीं होगा।
_ 'धातोरनेकस्वरादाम्' - ३/४/४६ सूत्र में सामान्य से किया गया कथन इस न्याय का ज्ञापक है । वह इस प्रकार - : धातु का 'अनेकस्वरत्व' दो प्रकार का है, १. 'परोक्षाहेतुक' और २. 'सामान्य' । ऊपर बताया हुआ 'पच्' आदि का द्वित्व परोक्षाहेतुक है, और 'चकास्' इत्यादि का स्वाभाविक है। दूसरे प्रकार के स्वाभाविक 'अनेकस्वरत्व' में 'धातोरनेकस्वरादाम्' -३/४/४६ से 'आम्' होगा किन्तु 'पपाच' इत्यादि में नहीं होता है , तथापि सूत्र में अनेकस्वरादाम्' स्वरूप सामान्योक्ति, इसी न्याय के कारण ही की गई है।
यह न्याय कहीं कहीं (क्वचित्-क्वचित् ) अनित्य है, अत: 'अतिजरसैः' रूप में 'अतिजर' शब्द अकारान्त होने से 'भिस्' का 'ऐस्' आदेश होता है और वही 'ऐस्' आदेश स्वरादि होने से अकारान्त 'जर' शब्द का 'जराया जरस्वा' २/१/३ से 'जरस्' आदेश होकर 'अतिजरसैः' रूप सिद्ध हुआ है। 'जरामतिक्रान्तः अतिजर:' शब्द में 'गोश्चान्ते हुस्वोऽनंशिसमासेयोबहुव्रीहौ' २/४/९६ से 'हस्व' होने पर वह अकारान्त होगा । अत: 'भिस ऐस' १/४/३ से अदन्तत्वनिमित्तक, 'भिस्' का 'ऐस्' आदेश हुआ है । यदि यह न्याय नित्य होता तो 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय से भी, 'जराया जरस्वा' २/१/३ सूत्र से 'जर' शब्द का 'जरस्' आदेश नहीं होता, क्योंकि इससे 'जर' शब्द के अदन्तत्व का नाश होता है, तथापि 'जरस्' आदेश होता है वह इस न्याय की अनित्यता सिद्ध करता है।
श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय को लोकसिद्ध बताया है, जबकि श्रीहेमहंसगणि ने लोकविरुद्ध
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