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धूवसुंदरनिवकहा
६३९ दण देवमंदिरमावासइ तत्थ निवसुओ सबलो । तम्मि पविट्ठो च्चिय झ त्ति मुच्छिओ पेच्छिऊण जिणं ॥ ८२०५ ॥ सिसिरकिरिया विरयणा संपाविय चेयणो ठिओ सत्थो । आपुच्छिओ य मुच्छाए कारणं मंतिवग्गेण ॥ ८२०६ ॥ जपइ कुमरो मह देवदंसणा जाइसरणमुप्पन्नं । सच्चवियं तेण भवदुगमायन्नह तयं तुब्भे ॥ ८२०७ ॥ पत्तहरराइयम्मि सार व्व आरामरम्मगामम्मि । साहससारो नामेण आसि एगो तुरयचोरो ॥ ८२०८ ॥ गंतूण दूरदेसे अत्थत्थी हरइ गुरुरयतुरंगे । विक्किणइ य दूरतरे को वा लुद्धाण मज्जाया" ॥ ८२०९ ॥ निय भोगम्मि निमुंजइ दविणं वियरई य दीणबंदीणं । "मोत्तूण चागभोगे नन्नं लच्छिफलं अहवा ?” ॥ ८२१० ॥ कइया वि कडीतडबद्धखग्गधेणू तुरंगहरणत्थं । पत्तो सुवासनामे गामे दिणपच्छिमे जामे ॥ ८२११ ॥ मणपवणजवे विलसंतलक्खणे तेयतरलया कलिए ।। पेच्छइ अतुच्छदुव्वादलाई चरमाणए तुरए ॥ ८२१२ ॥ तो सो चिंतइ एयाण मज्झओ जइ हरामि एक्कं पि । दालिद्दस्साजम्मं ता देमि जलंजलिं नूणं ॥ ८२१३ ॥ इय चिंतियप्पओसे लग्गो मग्गम्मि सो तुरंगाण । "जो अक्कज्जे पत्तो सपमायं कुणइ किं तम्मि ?” ॥ ८२१४ ॥ गामाहिवस्स गेहे गया हया सूरतेयनामस्स ।। दारे च्चिय सो रहिओ “परघरमाविसइ को सहसा ?" || ८२१५ ॥ पविसंतगोउलुच्छलियरयभरादिस्स देहजट्ठी सो । तम्मि पविट्ठो “अप्पं न चोरजारा पयासंति” ॥ ८२१६ ॥ मं पेच्छिही महीए को वि त्ति विचिंतिउं वडे चडिओ । "जह होइ अप्परक्खा दक्खा तह संपयट्टति ॥ ८२१७ ॥
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