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________________ फलसारकहा ६१५ कईया वि करह-खर-वसह-सगडसेरहसहस्ससंजुत्तो । संपत्तो सत्थाहो नामेण धणावहो तत्थ ॥ ७८९६ ॥ · आवासिओ य वडविडवितडकए गुड्डुरे गहीरम्मि । . गुणिणीविमाणयाइसु जहजोग्गं सेसलोगो वि ॥ ७८९७ ॥ एत्थंतरम्मि तवतेयभासुरो रईयउत्तरासंगो । गिम्हतरणि व्व चारणसमणमुणिंदो हयतमोहो ॥ ७८९८ ॥ अंगीकयविरइवओ अनिरुद्धसुओ अविग्गहो सययं । जयजणमणकयवासो सोहंतो कामदेवो व्व ॥ ७८९९ ॥ गयणंगणेण पत्तो तत्तो सत्थाहिवो सबहुमाणं । तन्नमिय निसीयावइ पट्टम्मि निसीयइ सयं पि ॥ ७९०० ॥ दटुं तं नवजोव्वणमन्भुयरूवं भणेइ सत्थाहो । किं पहु ! तुह वेरग्गं जं लहुएण वि वयं गहियं ? || ७९०१ ॥ आह पहू सत्थाहिव ! आयन्नसु अत्थि उड्ढलोगम्मि । बहुपुन्नपावणिज्जो सोहम्मो नाम सुरलोओ ॥ ७९०२ ॥ जम्मि बहुरविकरदुरवलोयमणिमयविमाणहयतिमिरे । लज्जंतो व्व न पविसइ कायरपुरिसो व्व सूरो वि || ७९०३ ॥ पुन्नप्पयरिसवसही निरूवमरूवो असीमइस्सरिओ । तं परिपालइ सक्को कयरिउगणमाणसं धसक्को ॥ ७९०४ ॥ तस्सत्थि परममित्तो समस्सिरीओ समाणसिंगारो । नामेण सरीरेण य विक्खावो अमियतेओ त्ति ॥ ७९०५ ॥ विलसिरतणुकंतिमई कंतिमई नाम सहयरी तस्स । दइयवियोगं सा विसयलालसा न सहइ खणं पि ॥ ७९०६ ॥ भणई य मं मोत्तुं तं मा गच्छसु सामि ! सक्कपासम्मि । जं तुह विरहुक्करिसो दूरं विहुरइ सरीरं मे ॥ ७९०७ ॥ पत्तमहाणंदा इव अमयद्दहसंगसुहियदेह व्व । तुह संगसंगया सामिसाल ! हं होमि नियमेण ॥ ७९०८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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