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रयणसुंदर कहा
तं सोउं खेयरचक्किणी माणकोवजलणजालेली । अह माणरत्तनयणप्पहाछलेण समुच्छलिया ॥ ७०७१ ॥ उभडभड भिउडीघडणभंगभावेण सामलं भालं । जायं से अब्भुल्लसियकोवदवधूमकलुषं चं ॥ ७०७२ || मंदरमंथाण महिज्जमाणरवीरोयघोससरिसेण । सद्देण बहिरयंतो भुवणं पभणइ खयरचक्की | ७०७३ || रे दूयाहम ! महुरं भणिरो वि पयंपसे जमइव निवं । तं अणुहरसि ससक्करसमिरिय पीऊससायस्स || ७०७४ | निन्नामस्स वि दाहं कन्नमहं नियरुइए कस्सा वि । दूय ! नियमने दाहं तुह पहुणो उत्तमस्सावि ॥ ७०७५ ॥ एयं अवलोइस्सं जह सो मह कन्नयं सरज्जं पि । गहिऊण परमकोडिं आरोवइ निययमहिमाणं ।। ७०७६ ॥ जइ सपयन्नापालो जइ सच्चं उभयकुलविसुद्धो य । ता सो महकरवालानिहत्तमणुसरउ समरम्मि ॥ ७०७७ || दूएणुत्तं पुव्वं सुव्वंता जे नरिंदघणसूरा । तम्मज्झाओ एक्को पढमयरो तमिह सच्चविओ || ७०७८ ॥ निव्वडइ पुरिसयारो जह नियमहिलाण अग्गओ राय ! । तम्हारिसाण तह जइ रणे वि ता किन्न पज्जुनं ? || ७०७९ ॥
रायाह न कस्सइ जंपिएहिं सूरत्तकायरत्ताइं ।
हुति जओ ता निय पहुमाणसु तं समरखेत्तम्मि || ७०८० ॥
इय जंपिय सम्माणियविसज्जिओ नियपुरे गओ दूओ । तह तेण कहियमहियं निय पहुणो से जहा कुविओ ॥ ७०८१ ॥ जंपर मइ जीवंते कन्ना अन्नाणुसारिणी जइ सा । संपज्जइ ता मह पुरिसयारचत्ता वि हु पउत्था || ७०८२ ॥ नियजणएण न जाओ अहं न जइ तं रणंगणे हणिउं । जयलच्छि पिव गिन्हा किमन्नयं चारुतरवन्नं ॥ ७०८३ ॥
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