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सिरिअणंतजिणचरियं देव च्चिय नयमग्गं नराणं दंसंति जुगसमारंभे । तं पुण देवो वि तमुज्झसे ह हा मोहमूढत्तं ॥ ६३५८ ॥ जे सिक्खा दायारो देवा न य मूढमाणवाण सया । ते वि हु सिक्खादाणं अरिहंति अहो महच्छरियं ॥ ६३५९ ॥ अन्नाणं पट्ठीए परिकलिउं नाणमग्गओ काउं । होउं पसंतचित्तो जुत्ताजुत्तं वियारेसु ॥ ६३६० ॥ तुह हियमिममियकहियं जं लहइ न कोइ परकयं पावं । तं कुणसु जमभिरुईयं, खेत्ताहिव ! जं सुनीई तं ॥ ६३६१ ॥ रायाणुसट्ठिवयणं जायं जुत्तं पि तस्स रोसाय ।। मेहविमुक्कं अमयं पि ऊसरे होइ ऊसाया ॥ ६३६२ ॥ खेत्ताहिवेण भणियं सिक्खं नरकीड ! देसि जं मज्झ । तं किं तुमं गुरू अहव कुलपहू अहव जणओ त्ति ? ॥ ६३६३ ॥ जइ तुह वुत्तेण अहं इमं उवेहेमि जोइणिं दर्छ । ता अन्ने वि अवन्नं मह निस्संका करिस्संति ॥ ६३६४ ॥ हुंति ससंका अवरे वि निच्छियं मारियाए एयाए । जेण अहं पावाए कलिओ लहूओ तणाओ वि ॥ ६३६५ ॥ विहियावन्नं एयं पि जोइयं पिइठाणम्मि ज्झाणगयं । मारेउं गहियसिरो अहमेउं मारिउं पत्तो ।। ६३६६ ॥ निकुट्टिय मारिस्सं तह कह वि हु जोइणि इमं पि अहं । जोईण जहा नाम पि नासए भुवणगब्भे वि ॥ ६३६७ ॥ ईय जंपिय जा चलिओ रएण ता राइणा इमं भणिओ । मा गच्छसु खेत्ताहिव ! न देमि मारिउमहमिमं तो ॥ ६३६८ ॥ मह भरवसएणमिमा जेण ज्झाणम्मि इण्हिमारूढा । सामेण व दंडेण व ता तमहं वारइस्सामि ॥ ६३६९ ॥ तो खुदो खेत्तवई जंपइ नरकीड ! मं तुम खलसि ? । राएणुत्तं को तं तुह नाहं पि हु खलेमि अहं ॥ ६३७० ॥
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