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दो पुरिसे धरउ धरा अहवा दोहिं पि धारिया धरणी । उवयारे जस्स मई उवयरियं जो न पम्हुस || ६२०३ ॥ तहा
उदए पत्ते उत्तम - उवयारं तह करेज्ज सविसेसं । पच्चुवयारमईणं मणोरहा जह विलिज्जति ॥ ६२०४ ॥ ता सामिसाल ! सामलचउद्दसीनिसिनिसीहसमयम्मि । तुह साहिज्जेण झड त्ति सिज्झए पवरमंतो ॥ ६२०५ ॥ अवहीरंतेण पुणो तुमए एयमहमत्तणो मन्ने । विहलं चिय संजायं कट्ठमिमं पुव्वसेवाए ॥ ६२०६ ॥ परमत्थेणं तर च्चिय, दिन्ना सिद्धी तमायरंतेण । ता मह करुणं काउं, साहेज्जेण कुण पसायं ।। ६२०७ ॥ जं न धरंति सपाणे वि पत्थणाभंग - भीरुणो गुरुणो । दक्खिन्नमहोयहिणो, परोवयार - व्वसणरसिया ॥ ६२०८ ॥ ता पहु ! महईए अहं आसाए तुह समीवमल्लीणा । अवसोयणीए विज्जाए, सोविया जामिगिल्ला वि ॥ ६२०९ ॥ भविही तिही - पहाए सच्चिय सामा चउद्दसी देव ! । निद्दायंतो दिट्ठो तुमं मए रयणपल्लंके ॥ ६२१० ॥ ता सुत्तं उट्ठाविउमतरंती भयुब्भरब्भमिरनयणी । आरुहिउं पासाए सेज्जाए ठिया विचिंतेमि ॥ ६२११ ॥
सिरिअणंतजिणचरियं
बीहेमि निवं जग्गावंती गोसम्मि मंतसिद्धिविणं । ता मह कट्टं विहलं ति सोगओ जाव रोएमि ॥ ६२१२ ॥
ता देव ! तए आगंतुमिह अहं रूयणकारणं पुट्ठा । कहियं च तुह पुरो पहु ! ता मह सिद्धी तुहायत्ता ॥ ६२९३ ॥ आयन्निरं तदुत्तं निवई चिंतइ वराइया एसा । अंगीकय बहुकालिय, सकट्ठविहलत्तणुव्विग्गा ॥ ६२१४ ॥
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