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रयणसुंदरका
जे पहुणो नामाओ वि नट्ठा देसे वि उज्झिउं रिउणो । ते साणुसया पत्ताओवद्दविस्संति देसमिमं ॥ ६१३९ ।। लवमेत्तं पिन पत्तं असुहं देवप्पसायओ जीए । परचक्कचमढणं सा पया वराई कहं सहिही ? ॥ ६१४० ॥ देवाण दाणवाणं खयराण य पुव्वभवविरुद्धेण । अन्नयरेणं केणइ हरिउं नीओ धुवं देवो ॥ ६१४१ ।।
इय तिय- चउक्क - चच्चर - रच्छा - गोउर - बहिप्पएसेसु । सुव्वंति सामिविरहियजणस्स परिदेवणं एयाई ।। ६१४२ ।। सोएण परिप्फुरियं वियंभियं भूरितरपलावेहिं । दीणत्तेणुल्लसियं तीए पुरीए निवइविरहे || ६१४३ ॥ गीएहिं गयं विसएहिं पवसियं नट्ठसिट्ठगोट्ठीहिं । सिंगारेणवसरियलीलाहिं पलाईयं दूरे ॥ ६१४४ ॥ सत्थहिं संपउत्थं विरइचत्ताहिं गुणि थुईहिं ठियं । पविलीणं च विलासेहिं सामिसाले अदीसंते ॥ ६१४५ ॥ पिहिया वणद्दुवारा निरूसवा अप्पमज्जियघरा य । पविरलजणप्पयारा नयरी सव्वा वि संजाया ।। ६१४६ ॥ अंतेउरीहिं जंपंति मंति ! अम्हाण देहकट्ठाई । जं नाहविरहियाओ खणं पि ठाउं न इच्छामो ॥ ६१४७ ॥ पडिवन्नपालणाहिं य पत्तजसा जेण लहूकयसरीरा । मरणुज्जमिणो जाया वेला चिन्ना वि तव्वेलं ॥ ६१४८ ॥ थइयावह-कंचूइ-अंगरक्खपडिहारचेडचेडीओ । मरणरणरणयमगणियअगिंग मग्गंति पहुविरहे ॥ ६१४९ ॥ रायंतेउरपमुहो जणो समग्गो वि मंतिणो भणिओ । किं भन्नइ तुम्हाणं, निक्कित्तिमभत्तिभावस्स ।। ६१५० ॥ जं नियकुलक्कमसमं पहुप्पसायरस समुचियं जं च । जं गरुयणाणुरूवं तमेव तुब्भेहिं भणियमिणं ॥ ६१५१ ॥
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