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________________ रयणावलिकहा एवं परिजंपति सम्माणेउं मणं च तप्पासे । मोत्तुं तं पालेउं च सुहृदिणे पत्थिओ मंती ॥ ३९४४ ॥ मंडलिया सामंता सेणावइणो य तंतवाला य । चलिया चउरंगदला निम्मलमइमंतिणा सद्धिं ।। ३९४५ ॥ अणवरयं विरयंतो भूरिपयाणाई वज्जिराउज्जो । तह भूरिपयाणाई वियरंतो मागहाण पहे || ३९४६ ॥ पत्तो कमेण केरलविसयासत्ताए समतलमहीए । सुलहिंधणजवसजलासयाए आवासिओ मंती ।। ३९४७ ॥ पडमंडवचउखंडय गुड्डरगुणिणी विमाणयाईसु । आवासिओ असेसो वि कडयलोगो जहाजोगं ।। ३९४८ ॥ अन्नाय समागच्छिररिउबलखलणखमे चउप्पासं । कडयस्स रक्खणट्ठा संठावइ पोढमंडलिए ।। ३९४९ ।। गुरुरयतुरए पेसिय आवासविसयं करावए सययं । नीइत्ति करिहरिनरे सन्नद्धे धरइ अभओ वि || ३९५० ॥ पाहरिए भामरिए वाणंतरिए निसासु तोरवइ । परिभावई य समंता गमचरभेए महामंती ॥ ३९५१ ॥ इय नयमग्गाणुगयं समयमवि कुणइ उज्जमुज्जुत्तो । रक्खतो सव्वस्स वि कडयस्स अवायलेसं पि ।। ३९५२ ॥ दूयं पट्ठावेडं पयंपिउं केरलेसरो एवं' | अविणयमुज्झसु अहवा रणसज्जो होउ मा गच्छ || ३९५३ || सो आह मए न कयाइ कस्सई कोइ अविणओ विहिओ । एमेव य संपइ को वि किं पि जइ भइ ता भणउ ॥ ३९५४ मुंचामि न पुव्वठिइं करेमि नो तीए समहियं किंपि । ता वच्चह सट्ठाणे मा कुणह धणक्खयं तुब्भे ॥ ३९५५ ॥ इय जंपिय सो दूओ सम्माणिय पेसिओ अमच्चस्स । दुग्गगिरिं दुत्थंगे सयं तुं गंतुं समासिट्ठो ॥ ३९५६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३०९ www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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