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सिरिअणंतजिणचरियं अवितक्कियं किमेयं जायमकम्हा वि सामिणो असुहं । अच्चंतदुस्सहं ता किं संभाविज्जइ इहत्थे ॥ ३६२० ॥ भूयाभिभवो गहसंगहो व्व उम्मत्तकरणमहवा वि । किं वा साइणिदोसो इय वियलत्तं निवस्स जओ ॥ ३६२१ ॥ जइ कह वि देव्वदुविल्लसिएण अच्चाहियं हवइ पहुणो । ता नूण निरावराहा पया वराई कहं होही ॥ ३६२२ ॥ सिविणयसच्चविएण वि हुँतो सत्तूण जेण तासो ते । सुरू व्व भीरूणो वि हु तद्देसमुवद्दविस्संति ॥ ३६१३ ॥ ता मंत-जंत-तंतोवयारकरणेण सामिणो देहं ।। निरवायं काहामी न पमाओ जुज्जए एत्थ ॥ ३६२४ ॥ इय चिंतिऊण मंता पउंजिया दंसियाई जंताई । उग्घोसियाओ संतीओ पूईया देवयाओ य ॥ ३६२५ ॥ जाणइ जणोवइहें अवरं पि हु सव्वमवि समायरियं । नवरं लवमेत्तो वि हु न गुणो जाओ नरिंदस्स ॥ ३६२६ ॥ दोसो पुणो पवद्धइ पहसइ गायइ पणच्चईय जं सो । वियरइ करतालाओ पेच्छइ य बद्धलक्खं पि ॥ ३६२७ ॥ तो मंतिणा विचिंतियमिमस्स न समत्थि भूयदोसाइं । संभाविज्जइ कामग्गहो जओ सो बली जेण ॥ ३६२८ ॥ सव्वगहाणं पभवो महागहो सव्वदोसपायड्ढी । कामग्गहो दुरप्पा जेणभिभूयं जगं सयलं ॥ ३६२९ ॥ तथा - विकलयति कलाकुसलं हसति कविं पंडितं विडंबयति । अधरयति धीरपुरुषं क्षणेन मकरध्वजो देवः ॥ ३६३० ॥ उद्दामजोव्वणाए कीय वि नवनेहनिद्धनयणाए । बालाए हिययं हरियं जइ घडइ ता एयं ॥ ३६३१ ॥
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