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जई दिंतो तुह पहुणो तणयं इण्हि तहा वि नो दाहं । तब्भुयबलावलेवावलोयणे कोउयं जं मे ॥ ३४६५ || दूत्तं नियगिहठिआण उल्लसइ कोउउक्कलिया । मिलियाण पुण रणे से नज्जइ कोउयभयविसेसो || ३४६६ | आजम्मं पि न जाओ समरारंभो वि केणइ समं से । जेणट्ठाणट्ठियस्स वि उवायणाई निवा दिति ॥ ३४६७ ॥ रायाऽऽह - भीरुयाणं नमिराण य भण कुओ रणारंभो । जमुवायणं तमहमवि दाहं से खग्गाहिघाएहिं ॥ ३४६८ ॥ दूएणुत्तं नरवर ! जह जीहा वहइ कायरस्सावि ।
तह जइ हत्था वि हु ता जयस्सिरी तस्स करकमले ॥ ३४६९ || रायाह न मह जीहा जंपइ भणइ जो न सो कुणइ । हत्थे उ निरूवेज्जमुवेहमाणे समरसंरंभे ॥ ३४७० ।। ता नियनाहं घेत्तुं समेहिं समरे ममावि दूओ तं ।
इय भणिऊण सम्माणिय विसज्जए तं गओ सो वि ॥ ३४७१ ॥
सिरिअणंतजिणचरियं
तो गंतुं नियनयरं दूएण समित्तु नियनरिंदस्स । कहिओ तव्वुत्तंतो तं सोउं भणइ सो रुट्ठो ॥ ३४७२ ॥
जं सो सामेण वि मग्गिओ न मे वियरए नियं कन्नं । मन्नामि होउकामा तं सा मह सह पिउसिरीए ॥ ३४७३ ॥
एगे दाऊण नियस्सिरिं पि समुवज्जयंति सोजन्नं । अन्ने परकीएण वि न तं सुया जेण परकीया ॥ ३४७४ || ता ताडेह रणढक्कं पठणह करि तुरय-रह - भडव्वूहं । मंडलिअ - मंति- सामंत-तंतवालाय संचलह ॥ ३४७५ ।। इय ते पत्ताएसा सिरे धरेउं निवस्स तं आणं । सन्नहिउं पारद्धा निउत्तनियनियनिओएहिं ॥ ३४७६ ।। हाओ कयबलिकम्मो पणमिय नियगोत्तदेवयगुरूणं । सुहदिवसे संचलिओ नरेसरो समरकरणाय || ३४७७ ॥
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