________________
२६७
रयणावलिकहा
अवि वज्ज पि दलिज्जइ ससएण रणम्मि जिप्पइ हरी वि । तह वि न अणंतनाणिप्पउत्तमिह अन्नहा होइ ॥ ३४०२ ॥ ता मोऽवस्संभविभावभावणुभावणम्मि का चिंता ? । होयव्वं चियं भविहि त्ति कालमइवाहए राया ॥ ३४०३ ॥ अह अन्नया य घणपउमरायआभरणपहपिसंगपहो । चउपासप्पसरियमुत्तिमंतलोयाणुराओ व्व ॥ ३४०४ ॥ थूलामलमुत्ताहलहारावलिकंतचारुपरिवेसो । सरयच्छणहरिणको व्व जायजोण्हाभरप्फुरणो ॥ ३४०५ ॥ उवविट्ठो अत्थाणे भडकोडि वि संकडे खयरचक्की । पणओ सामंतामच्चमंडलीएहिं विणएण ॥ ३४०६ कुलयं ॥ एत्थंतरम्मि वज्जालिकलियमणिरम्मकणयदंडकरो । पणमिय विन्नवइ निवं पडिहारो हारिहारउरो ॥ ४४०७ ॥ देव ! दुवारे दूओ विज्जुप्पहखयरचक्किणो पत्तो । सो संरुद्धो चिट्ठइ मुच्चउ मा वत्ति आइसह ॥ ४४०८ ॥ रायाह सिग्घमेव य तं मुंचसु तयणु दंडिणा तेण । दिन्नपवेसाएसो दूओ पविसइ निवसहाए ॥ ३४०९ ॥ जीएऽरुणमणिकुट्टिमतलम्मि विलसंति मोत्तियचउक्का । घुसिणरसरंजियाए मल्लिमकलियोवहार व्व ॥ ४४१० ॥ जा इंदनीलमणिभित्तिदित्तिसंताणसामला सहइ । मसिणीकयमयणाहीपंकविलित्तच्चए मत्तो ॥ ३४११ ॥ फलिहत्थंभपहा जीए रिट्ठथंभप्पहाहिं संचलिया । गंगा-जउणा-वेणी-संगमसोहं समुव्वहइ ॥ ३४१२ ॥ नीए नियइमणिकरदुरवलोयसीहासणं समक्कमिउं । उवचिठं तेयस्सीणमसहमाणं व निवइ सो ॥ ३४१३ ॥ दुनिरिक्खो रयणाभरणपहभरो जस्स रेहए पुरओ । पत्तो रविप्पयावो निवप्पयावं व पेच्छउं ॥ ३४१४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org