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________________ नेमिचन्द्र की प्राकृत साहित्य की एक अनुपम कृति है । भाव, भाषा, अलंकार एवं रस निष्पत्ति के दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट काव्य है । इस में प्रेम, आश्चर्य, राग-द्वेष एवं अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति यो के बीच नाना प्रकार के भावों की व्यंजना की गयी है । इसमें मूल कथा नायक से कहीं अधिक अवान्तर कथा के नायकों का चरित्र विकसित है । प्रायः सभी अवान्तर कथाएँ धर्मतत्त्व के उपदेश हेतु निर्मित हैं । एक प्रकार के वातावरण में एक-सी ही कथाएँ जिन में प्रभावोत्पादकता प्रायः नगण्य ही है, वर्णनों की बाहुलता रहने से घटनाओं की संख्या अत्यल्प है । इसमें नगर, गाँव, बन, उद्यान, पर्वत, चैत्य, प्रातः संध्या, ऋतु आदि का एवं नरमुण्ड की माला धारण किये हुए कापालिक, योगिनियाँ एव उपकथाओं के साहसी नायकों का सजीव वर्णन है । कापालिक स्मशान में मण्डल बनाकर साधना करता है । उत्तर साधक के साहस से उसकी विद्यासिद्धि की प्रक्रिया रोचक शब्दों में वर्णित है । इस चरित काव्य पर प्रौढ़ संस्कृत काव्य का पूरा प्रभाव है । संस्कृत की शब्दावली भी अपनाई गई है । भगवान अनन्तनाथ का जन्म वर्णन सरल अपभ्रंश भाषा में वर्णित है । सारा ग्रन्थ आर्याछंद में निबद्ध है । अपभ्रंश भाषा में रड्डा छंद का प्रयोग अधिकतर किया है । अनुष्टुप छंद का भी विपलुमात्रा में प्रयोग किया है । बीच बीच में संस्कृत सुभाषित भी अन्यान्य ग्रंथों से उद्धृत किये हैं । कवि ने अपने सारे ग्रन्थ को सुभाषित मय ही बना दिया है । इस ग्रन्थ के सुभाषित इतने प्रभावोत्पादक है कि वाचक स्वयं इस ग्रन्थ को पढ़ने की धन्यता का अनुभव करता है । कवि कहीं कहीं प्रथम पाद में चरित्र की घटना का वर्णन करता है तो द्वितीय पाद में एक सुन्दर, सुभाषित देकर उस घटना को और भी रोचक बना देता है । कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक आदि अलंकारो की कई स्थलों पर सुन्दर योजना की है । वर्णनों की सजीवता चरितों को अधिक रसप्रद बनाया है । अलंकृत वर्णन काव्यतत्व का समावेश करते हैं । सुक्ति, धर्म, नीति, एवं सांस्कृतिक तत्त्वों द्वारा चरित को मर्मस्पर्शी बनाने का उनका प्रयास प्रशंसनीय है 1 इस चरित काव्य के मुख्य नायक चौदहवें तीर्थंकर भगवान अनन्तनाथ हैं । बारह हजार गाथाओं में इस ग्रन्थ की समाप्ति की गई है । सम्पूर्ण ग्रन्थ पद्यमय है । भगवान के जन्म वर्णन के अतिरिक्त इसकी भाषा प्रौढ़ महाराष्ट्री प्राकृत है । समस्त काव्य पांच प्रस्तावों में विभक्त है । प्रथम प्रस्ताव में भगवान अनन्तनाथ के पूर्व भव मनुष्य का तथा द्वितीय भव देव का एवं उनके गर्भ में अवतरित होने का विस्तार से वर्णन किया है। इस में बताया गया है कि सम्यकत्व और संयम के प्रभाव से ही व्यक्ति अपने जीवन को कल्याणप्रद बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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