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________________ सकता है एवं चारित्रिक विकास से ही मोक्ष पथ की ओर अग्रसर होता है । भगवान अनन्तनाथ ने अनेक जन्मों में संयम और सदाचार का पालन कर संस्कारों का अर्जन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर चौदहवें तीर्थंकर पद को प्राप्त किया । द्वितीय प्रस्ताव में भगवान के इन्द्रों एवं देवों द्वारा किये गये जन्मोत्सव का विस्तार से वर्णन है । तृतीय अवसर में भगवान का राजा द्वारा किया गया जन्मोत्सव, नामकरण, राज्यारोहण, विवाह, पुत्र प्राप्ति, महानिष्क्रमण, प्रथम पारणा, छद्मस्थ अवस्था में विविध देशों में परिभ्रमण, केवलज्ञान की प्राप्ति, प्रथम समवरण में धर्म देशना, संघ की स्थापना, गण और गणधरों की रचना का विस्तार से वर्णन है । चतुर्थ प्रस्ताव में विविध देशों में विहार एवं समवसरण में बैठ कर धर्मदेशना देने का वर्णन है । पंचम प्रस्ताव में धर्म देशना में अष्टविध पूजा की महिमा एवं उन पर दिये गये आठ दृष्टान्तों का विवेचन है । अन्त में सम्मेतशिखर पर भगवान के आगमन एवं उनके निर्वाण का भी विस्तृत वर्णन है । मूल चरित्र के साथ कुल कथाएँ भी एस में आई हैं । तीर्थंकरचरित्र का मूलस्त्रोत विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है । भारतीय साहित्य में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है । भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य का अपना एक विशिष्ट महत्व है । श्रमण परम्परा ने भारतीय कथा साहित्य की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा भी दी है । जैन कथा साहित्य का तो मूल लक्ष्य ही रहा है कि कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की सत्प्रेरणा देना । आगमों से लेकर पुराण, चरित्र, काव्य, रास एवं लोककथाओं के रूप में जैनधर्म की हजारों कथाएँ विख्यात हैं । ये कथाएँ मानव जीवन को सुखी, स्वस्थ और शान्त बनाने के लिए एक वरदान लेकर पृथ्वी पर अवतरित हुई हैं, मानव में घुसी हुई दानवीय वृत्ति को निकालती हैं और मानवता की पुण्य प्रतिष्ठा करती हैं । जैनकथाओं के पीछे एक पवित्र प्रयोजन समाविष्ट है कि श्रोताओं और पाठकों की शुभ प्रवृत्तियों को जागृत कर सके और अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर शुभकर्म प्रवृत्ति की प्रेरणा प्राप्त हो सके । जैनचार्यों की कथा रचना में ऐसा उच्च एवं उदात्त आदर्श जैन कथा वाङ्मय की अपनी विशिष्टता है । इसी आदर्श को लक्ष्य में रख कर जैनाचार्यों ने सैकड़ों चरित काव्यों की एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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