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रणविक्कमकहा
दाऊण हत्थसोयं, मोहं जणिरीए रूवविणएहिं । रसवंजणाए कच्चोलए मुत्तीए निहित्ताइं ॥ २४२२ ॥
पसरंतसुरहिपरिमल-बंधुरतरउसिणकलमकूरस्स । भरिऊण रयणदव्वी निक्खित्ता जाव थालम्मि ।। २४२३ ॥ तावप्पसारियमुहं करालनयणं विकिन्नलहुकेसं । रुहिरारुणं नरसिरं, सो पेच्छइ मच्छियाचरियं ॥ २४२४ ॥ किमिमं ति विम्हियमणो, अवलोयइ जा न ता विमाणाई । न य रमणिं किंतु पुरो, नियइ बिडालिं महिसिमेत्तं ।। २४२५ ॥ निच्छिद्दप्पसरियकालकायपह-पसरपूरियदियंतं ।
वेढिज्जंति कवडुब्भवेण पावेण व समंता ।। २४२६ || वित्थरिया किरणा इव, जीए दीसंति कालमुहकेसा । भयमुप्पायर केसं पिंगं नयणजयं केउजुयलं व ।। २४२७ ॥ कालं सलवलिरं से, पुच्छं कलुसत्तकुडिलभावे व्व । दंसइ पसारियं पुण वयणं गिलिउं व भुवणं पि ॥ २४२८ ॥ करणक्कमे कुणंती, पयंपए माणुसीए भासाए ।
रे ! दुट्ठ ! विणट्ठं तं मन्नसु अप्पं मह सयासा ।। २४२९ ॥
तं सोडं सो चिंतइ तमिमं जं जोईणीजणो कुणइ ।
ता निग्गहेमि एयं जा न कुणइ किं पि हु अणिट्ठे ॥ २४३० ॥ इय चिंतिय कयकरणो दुहा वि आरुहिय तीए खंधम्मि । गाढीकयजंघाहिं निरुंभए झत्ति गलसरणिं ॥ २४३१ ॥ पडिया दड त्ति महिमंडलम्मि संरुद्धसाससंचारा । उत्तरिऊणायट्ठियछुरियं जा तं विणासेइ ॥ २४३२ ॥ तो सा पयडीकयजोइणीतणू भणइ दीणवयणेहिं । मा सुहड ! मं विणाससु सिद्धा हं वंछियं वरसु ॥ २४३३ ॥ तेणुत्तं जइ एवं ता वियरसु अणुदिणं सुवन्नसयं । तीउत्तं गोसे च्चिय सरियं पडिही नहाओ तयं ॥ २४३४ ॥
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