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अनन्तनाथ ने अपने पचास गणधरों और विशाल श्रमण श्रमणियों के परिवार के साथ विहार कर दिया । अनेक ग्राम नगर के भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए भगवान अपने विशाल परिवार के साथ विमलगिरि अपरनाम शत्रुंजयगिरि पर पधारे । यहाँ देवों ने समवसरण की रचना की । देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं श्रमण श्रमणियों का परिवार समवसरण में उपस्थित हुआ । भगवान का आगमन सुन राजा कदंबपरिमल अपने मंत्री, सामन्त, सेठ, सेनापति एवं अन्तःपुर की रानियों के साथ भगवान के दर्शन एवं उनकी देशना सुननेके लिए शत्रुंजय पर्वत पर लगे समवसरण में पहुँचे । भगवान ने महति परिषद के सामने अपना धर्मोपदेश प्रारंभ किया । भगवान ने अपने धर्मोपदेश में दस प्रकार के यति धर्म, सम्यकत्व पूर्वक श्रावक के बारह व्रतरूप धर्म एवं देव, गुरु तथा तत्त्वं का सार निरूपण किया । धर्मदेशना की समाप्ति के बाद राजा कदंब परिमल ने भगवान को वन्दन कर पूछा भगवन् ! साधु धर्म और श्रावक धर्म का सम्पूर्ण पालन सभी जीवों के लिए संभव नहीं है और मुझ जैसा पामर जीव तो पालन नहीं करना सकता । अतः आप मुझे ऐसा सरल मार्ग बताएं जिससे में इस भवसमुद्र को पार कर सकूँ ? | भगवान ने कहा राजन् ! एक ऐसा भी मार्ग है जिससे तुम सरलता से भवों का अन्त कर सकते हो वह है जिनपूजा । भक्तिपूर्वक की गई त्रिकाल जिनपूजा पापों का नाश करती है और भव का अन्त करती है । लक्ष्मी वियोग, सब प्रकार के कष्ट एवं दारिद्र्य का नाश होता है । जिनपूजा आठ प्रकार की कही गई है । १. कुसुम, २. अक्षत, ३. फल, ४. जल, ५. धूप, ६. दीप, ७. नैवेद्य तथा सुभवास । इन आठ प्रकार के पदार्थों से जो जिनपूजन करता है वह शिव सुख को पाता है । राजा की प्रार्थना पर भगवान ने प्रत्येक पूजा पर एक-एक द्रष्टान्त दिये । उन्होंने कहा
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१. दुर्गदेव, पुष्पपूजा से कुसुमशेखर राजा बना । (गा. ७५६८-७७१९) २. दुर्गपताका, अक्षतपूजा से अक्षयकीर्ति राजा बना । (गा. : ७७२०-७८७३) ३. वानर, फलपूजा से फलसार राजा बना । (गा. : ७८७४-८००९)
४. चन्द्रतेज, जलपूजा से जलसार राजा बना । (गा. : ८०१० - ८१४८) ५. साहससार, धूपपूजा से धूपसार राजा बना । (गा. : ८१४९-८३४१) अकिंचन, दीपपूजा से भुवनप्रदीप राजा बना । (गा. : ८३४२-८८३९) ७. रणशूर, नैवेद्यपूजा से भुवनप्रमोद राजा बना । (गा. : ८८४०-८८८१) ८. धनावह, वासपूजा से गंधबन्धुर नामक राजा बना । (गा. : ८८८२ - ९०७८)
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