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की कथा गणधर यश के आग्रह से कही (गा. : २४९१-३२८१)
दान की महिमा बताकर आपने शीलधर्म की व्याख्या करते हुए कहा - शील सतरह प्रकार का है - प्राणिवध आदि पांच आश्रवों का त्याग, पांच इन्द्रियों का संयम, चार कषायों का निग्रह तथा मन, वचन, काययोग का निरोध । इन सत्तरह प्रकार के शील पालन से व्यक्ति देवगति प्राप्त कर देवऋद्धि का भोग करता है। उसके पश्चात् वह मनष्य भव प्राप्त कर परम सिद्धि को पाता है । शील के प्रताप से रत्नावली ने विपुल सुख को प्राप्त कर अन्त में मोक्षगति में जाकर परमानन्द को प्राप्त किया । वह कथा कह रहा हूँ (गा. : इड५८२-४७४०)
धर्म का तीसरा प्रकार तप है । वह बाह्य और आन्तरिक भेद से बारह प्रकार का है । तप से व्यक्ति कर्मों को जीर्ण करता है, और तीर्थकरत्व, सर्वज्ञत्व को प्राप्त कर परम मोक्ष को पाता है । तप से चन्द्रकान्त राजा ने कैसे भव का अन्त किया वह वर्णन सुनाता हूँ (गा. : ४७४१-५८३८)
भावधर्म भी चार प्रकार का है । आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । आर्त और रौदध्यान से जीव नरक तिर्यंचादि गति में परिभ्रमण करता हुआ महान् दुःखों का भागी बनता है | धर्मध्यान और शुक्लध्यान से जीव भवों का अन्त कर अन्त में मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । भावना धर्म की आराधना से श्रृंगार-मुकुट राजा ने किस प्रकार संसार परिभ्रमण का अन्त किया और जन्म, जरा, मृत्यु से मुक्त होकर कैसे सुखी बना उस पर में श्रृंगारमुकुट राजा की कथा सुनाता हूँ । (गा. : ५८३९-७४६६)
इसके पश्चात् भगवानने साधुओं के पांच महाव्रत रूप एवं क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस यति धर्मों का विवेचन कर पाँच अनुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार के श्राक्क धर्म और सम्यकत्व का स्वरूप समझाया। .
भगवान के प्रवचन का उपस्थित श्रोताजनों पर बड़ा प्रभाव पड़ा । जस आदि पचास राजाओंने एवं पद्मावती के साथ पचास अन्तपुर की स्त्रीयोंने एवं अनेक नरनारियोंने भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण की । अनेकोने सम्यक्त्व पूर्वक श्रावक धर्म ग्रहण किये । अनन्तबल राजा ने भी श्रावक धर्म ग्रहण कर प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की । भ. ने जस मुनि आदि पचास गणधरों की नियुक्ति की । गणधरों ने ग्यारह अंगसूत्र और चौदह पूर्व की रचना की । गणधरों में जस मुख्य गणधर बने । और साध्वी प्रमुखा पद्मावती बनी । इन्द्रादि देवों ने भक्ति भाव पूर्वक भगवान की वन्दना व स्तुति की । देशना समाप्ति के बाद राजा अनन्तबल और इन्दादि देवगण अपने अपने स्थान लौट आये । कुछ समय तक भगवान अयोध्या नगरी ही में ठहरे । उसके पश्चात् भगवान
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