SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने वर्द्धमानपुर के राजा विजय के घर खीरान्न से पारणा किया । उसी समय रत्नवृष्टि आदि पंच दिव्य प्रगट हुए। प्रभु जहाँ खड़े थे उस स्थान पर राजा विजय ने एक रत्नमय वेदी का निर्माण करवाया। (गा. : १५५१-२०२४). विविध परिषहों को सहते हुए और कठोर तप साधना करते हुए भगवान अनन्तनाथ तीन वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मलय, बंग, कुंतल, कलिंग, मालवा, केरल आदि देशों में विचरण करते रहे । ध्यान और उत्कृष्ट तप करते हुए और अनेक परिषह को सहते हुए भगवान अयोध्या नगर के सहस्त्राम्र उद्यान में पधारे । वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान की उत्कट अवस्था में चार घातिकर्मों का क्षय किया । वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन जब चन्द्र रेवती नक्षत्र में था तब दो दिनों के उपवासी प्रभु को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । अपने अवधिज्ञान से भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ जानकर अपने अपने विमान में बैठकर वे भगवान के समीप पहुँचे । भगवान को वन्दन कर देवों और इन्द्रों ने भगवान का केवलज्ञान उत्सव किया । चतुर्निकाय देवों ने रत्नजड़ित समवसरण की रचना की। समवसरण के बीच ईशान कोन में प्रभु के विश्राम के लिए देवछंद बनाया । व्यन्तरों ने समवसरण के मध्य में चैत्य वृक्ष का निर्माण किया । उस चैत्यवृक्ष के नीचे एक रत्नपीठिका बनाई । उसके मध्य पूर्व दिशा में विकसित कमलकोश के मध्य कर्णिका से युक्त पादपीठ के साथ एक रत्नसिंहासन लगाया । उस सिंहासन पर छत्रत्रय का निर्माण किया । ___ भगवान अनन्तनाथ ने पूर्वद्वार से समवसरण में प्रवेश किया । नमो तित्थाय कह कर भगवान कमलसिंहासन पर विराजमान हुए । (गा. २०२५-२०९०) अनन्तबल राजा को भगवान के आगमन और केवलज्ञान का समाचार मिला तो वह भी अपने विशाल परिवार के साथ समवसरण में भगवान की देशना सुनने के लिए गया । मनुष्य, देव एवं तिर्यंच की विशाल परिषद् की उपस्थिति में भगवान ने मेघगम्भीर वाणी में अपनी देशना में धर्म की महिमा समझाते हुए कहा - संसार में धर्म ही सर्वोत्कृष्ट है तथा सभी दुःखों की सर्वोत्तम औषधि है । धर्म एक बहुत बड़ा बल है और धर्म ही त्राण और शरण है । अधिक क्या कहा जाय । सम्पूर्ण जीवलोक में इन्द्रिय और मन को अच्छे लगनेवाले जो भी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सभी धर्म के ही फल हैं । इसमें दान धर्म सर्वोत्कृष्ट धर्म है । वह तीन प्रकार का है । प्रथम ज्ञानदान, दूसरा अभयदान और तीसरा धर्मोपग्रहदान । इन तीन प्रकार के दान से जीव सम्पूर्ण कर्म का क्षय कर सिद्धि सुख को प्राप्त करता है । दान के प्रभाव से रणविक्रम राजा ने किस प्रकार ऋद्धि प्राप्त की और अन्त में शिवपद का अधिकारी बना । इस पर उन्होंने रणविक्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy