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त्रयोदशी को जब चन्द्र मीन राशि में था तब रेवती नक्षत्र के योग में रानी ने स्वर्णवर्णीय एक पुत्र रत्न को जन्म दिया । ६४ इन्द्रों और देवों ने मेरुपर्वत पर जाकर भगवान का स्नानाभिषेक किया । जन्मोत्सव के पश्चात् भगवान को इन्द्र ने उनकी माता के पास रख दिया और वे भगवान को वन्दन कर स्व स्थान लौटे गए । (गा. : १५५०-)
प्रातः राजा सिंहसेन ने पुत्र का बड़े उत्साह के साथ जन्मोत्सव मनाया । बन्दियों को बन्धन से मुक्त किया । गरीबों को दान दिया और मन्त्री और सामन्तों का सन्मान किया । जब यह पुत्र गर्भ में था तब उनकी माता सुयशा ने स्वप्न में मणिरत्नों की अनन्त मालाएँ देखी थी अतः शुभ दिन में बालक का नाम अनन्त रखा गया । शक्र द्वारा नियुक्त पांच धात्रियों द्वारा पालित होकर एवं अंगुष्ट का अमृतपान कर भगवान अभिवर्द्धित होने लगे । यद्यपि वे तीन ज्ञान के धारक थे फिर भी उन्होंने शिशु सुलभ सरलता धारण कर रखी थी । वे देव, असुर और मनुष्य के साथ क्रीड़ा करते हुए युवा अवस्था को प्राप्त हुए । उस समय उनकी उँचाई ५० धनुष थी । अपने भोग कर्मों को अवशेष समझकर माता पिता के आग्रह से उन्होंने मदनावली, सुकंता, मृगांकलक्ष्मी, जया, विलासवती चन्द्रश्री, कामलता, जयावली आदि सुन्दर राजकुमारियों के साथ विवाह किया । इन राजकन्याओं में मदनावली उनकी प्रधान रानी बनी । संसार सुख भोगते हुए उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । उसका नाम अनन्तबल रखा । साढ़े सात लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर पिता की आज्ञा से उन्होंने राज्यभार ग्रहण किया । पंद्रह लाख वर्ष तक राज्य शासन करने के बाद उनके मन में संसार परित्याग की भावना जाग्रत हुई । उसी समय ब्रह्मलोक से सारस्वत आदि आठ लोकान्तिक देव उनके पास आये और प्रार्थना कर बोले -- हे लोकनाथ ! अब आप दीक्षाग्रहण करें । कुबेर द्वारा प्रेरित और भगदेवों द्वारा लाये गए धन से प्रभु ने एक वर्ष तक दान दिया । वर्षी दान की समाप्ति पर देव, असुर और राजाओं ने दीक्षार्थी भगवान का स्नानाभिषेक किया । उसके बाद भगवान चन्दन, वस्त्र-भूषण और मालादि धारण कर सागरदत्ता नामक उत्तम शिबिका पर विराजमान हुए । छत्र और चामरधारी अन्यान्य इन्द्रों द्वारा परिवृत्त हो कर भगवान सहस्त्राम्र उद्यान में पहुँचे । वहाँ शिबिका से उतरकर समस्त अलंकारों का त्याग कर दिया । स्कन्ध पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र धारण कर वैशाख कृष्ण चतुर्दशी को मध्यान्ह के समय में चन्द्र जब रेवती नक्षत्र में था तब दो दिनों के उपवासी प्रभु ने एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । प्रभु को वन्दना कर शकादि इन्द्र तथा अनंतबल आदि राजा गण अपने अपने निवास स्थान को लौट आये । दूसरे दिन प्रातः भगवान अनन्तनाथ
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