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और तप से अपनी शेष आयु को पूरा कर समाधिपूर्वक मरा और प्राणतकल्प के पुष्पोत्तर विमान में महर्द्धिक देवरूप में उत्पन्न हुआ । तृतीय भव : (गाथा : १२३७ -) - जम्बद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में अयोध्या नामकी सन्दर नगरी थी । इसकी वापिकाएँ पार्श्वस्थित रत्नजड़ित सोपान पंक्तियों की प्रभा से अत्यन्त सुन्दर प्रतिभासित होती थी । जिनमंदिरों सहित इसके स्वर्णमय गृह, प्रतिसोपान स्थित दर्पण के कारण मानो धर्म, अर्थ और कामरूप संसार की त्रिविध वस्तुओं की उद्घोषणा करते हो ऐसा प्रतीत होते थे । मरकतमणी जड़ित इसका राजपथ रात्रि में नक्षत्रों द्वारा प्रतिबिम्बित होकर लगता था मानो वहाँ मुक्ताओं से स्वस्तिक . की रचना की गई हो । नगरी की स्त्रियों द्वारा दीवारों की खुटियों पर लटकाई गई पुष्पमालाएं रत्नहारों का भ्रम उत्पन्न करती थी । उद्यान नायिकाओं के शीत से, अट्टालिका स्थित पाक शालाओं की उष्णता से और हाथियों के मदक्षरण से वहाँ मानों शीत, ग्रीष्म और वर्षा, ये तीनो ऋतुएँ सर्वदा रहती थी ।। - वहाँ के राजा का नाम था सिंहसेन । वह सिंह की तरह पराक्रमी था । उसके शत्रुगण मृग की तरह भयभीत होकर गिरिकंदराओं में छिपे रहते थे । वह राजा प्रकृति से सौम्य और प्रताप में सूर्य के समान तेजस्वी था । उसके तेज के सामने उसके शत्रुगण निष्प्रभ थे । उसकी रानी का नाम था, सजसा । वह आनन्दरूपा स्नेहमयी और सौंदर्य की प्रतिमा, और कुलरूप सरिता की हंसिनी थी । अपने रूप, लावण्य और सौंदर्य से पति को आनन्दित करती हुई महारानी सुजसा का समय सुख पूर्वक व्यतीत होने लगा ।
प्राणतकल्प के पुष्पोत्तर विमान में पद्मरथ देव के जीव ने सुखपूर्वक देवायुष्य पूर्णकर देवी सुजसा के गर्भ में प्रवेश किया । सुखशय्या में सोई हुई सुजसा देवी ने तीर्थंकर के जन्म सूचक चतुर्दश महास्वप्न देखे । रानी इन महान दिव्य स्वप्नों को देखकर जागृत हुई । उठकर राजा के पास आई और स्वप्नों की चर्चा करते हुए बोली - महाराज ! मैंने ऐसे दिव्य स्वप्न आज पहली बार देखे हैं । इनका क्या फल होगा ? प्रसन्न होकर महाराज ने कहा - तुम महान् भाग्यशाली रानी हो । ऐसे स्वप्न संसार में शायद ही कभी कोई पुण्यवती स्त्री देखती है । स्वप्नशाम्र के अनुसार इन स्वप्नों का फल है किसी त्रिभुवन-विजयी पुत्र का जन्म ! तुम अवश्य किसी महापुरुष की माता बनोगी । (गा. : १२७४-)
राजा का कथन सुनकर रानी हर्ष विभोर हो उठी । वह अपने शयन कक्ष में लोट आई और प्रभु का स्मरण करने लगी । इन्द्रादि देवों ने आकर रत्नगर्भा सुजसा की प्रणाम पूर्वक स्तुति की । गर्भकाल के पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला
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