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तो होता है, किन्तु साथ में थोड़ी सी भूल हुई नहीं कि, जीभ कटने का खतरा भी रहता है । वैसे ही संसार के ये भोग हैं, भोग में क्षणिक आनन्द का अनुभव तो होता है किन्तु कुछ समय के बाद वही भोग रोग का रूप धारण कर लेता है । जीवन का अन्त मरण है । अतः रोग, बुढ़ापा और मृत्यु का आक्रमण होने से पूर्व ही मनुष्य को धर्म का आचरण कर लेना चाहिए क्योंकि धर्माचरण से ही मनुष्य भव के, दुःख का अन्त कर सकता है । मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है । __ धर्म दो प्रकार का है । एक यति धर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म । क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप संयम, सत्य, शौच,. आकिंचण्य और ब्रह्मचर्य रूप यति धर्म के दस प्रकार हैं । इस के आचरण से यति जन्म, जरा मृत्यु आदि दुःखों का अन्त करता है । देव वीतराग होने चाहिए और गुरु निर्ग्रन्थ । तत्त्व नौ हैं - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध और निर्जरा । देव, गुरु और तत्त्व की परीक्षा करके ही जीव सद्धर्म की प्राप्ति कर सकता है और सद्धर्म की प्राप्ति से ही जीव शिवपद को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति यति धर्म का सम्पूर्ण पालन नहीं कर सकता वह गृहस्थ धर्म का पालन कर शिवपद को प्राप्त कर सकता है । गृहस्थ धर्म बारह प्रकार का है - पाँच अनुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, रूप । इन बारह व्रतों का पालन करनेवाला गृहस्थ अवश्य अमर पद को प्राप्त करता है । चन्द्रसेन नामक राजा ने गृहस्थ धर्म का पालन कर अपने जीवन को जिस प्रकार से सफल किया वह कथा तुम्हें सुनाता हूँ। तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो । आचार्य श्री ने चन्द्रसेन की कथा कही (गाथा - २६२-१२३६)
- आचार्य के उपदेश का राजा पर गहरा असर पड़ा । उसने आचार्य से कहा - भगवन् ! आपका कथन सत्य है । मैं भवों का अन्त करने वाली प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । मुनि ने कहा - जैसी इच्छा । राजा मुनि को वन्दन कर घर आया । उसने अपने पुत्र के सामने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । पिता की उत्कट भावना देखकर पुत्र ने दीक्षा का भव्य उत्सव किया । संघ और जिनबिंबों की पूजा की । दीन अनाथों को दान दिया । प्रजाजनों को करमुक्त कर संतुष्ट किया । राजा उत्सवपूर्वक शिबिका में बैठकर आचार्य श्री के समीप उद्यान में पहुँचा । आचार्यश्री ने राजा की संयम भावना को पहचाना और उसे दीक्षा दे दी । दीक्षित होकर मुनि पद्मरथ ने अनेक प्रकार की कठोर तपस्या की । तीर्थंकर गोत्र उपार्जन करनेवाले बीस स्थानको में से कई स्थानकों की आराधना कर उस निर्मलमना मुनि ने तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया । संयम
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