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के पास पहुँचे । केवली ने अपने ज्ञान के बल से राजकुमारी का तथा उसके अपहरण कर्ता विद्याधर का नाम और स्थान बताया । पता मिलते ही राजकुमार रात्रि के समय अकेला ही राजकुमारी की खोज में निकला । घूमते घूमते वह वैतादय पर्वत की तलहटी में पहुँचा । वहाँ विद्याधर विजयध्वज के पुत्र विजयकेतु ने विद्या के बल से राजकुमारी को हिरनी बनाकर रखी थी । राजकुमार ने हिरनी को राजकुमारी के रूप में देखा । मंत्रबल से उसने हिरनी को पुनः राजकुमारी बना दिया । इतने में दुष्ट विद्याधर विजयकेतु वहाँ पहुँचा । दोनों में घमासान युद्ध हुआ। विजयकेतु युद्ध में हार गया और घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा । राजकुमार ने घायलशत्रु का उपचार किया और उसे स्वस्थ्य बना दिया । राजकुमार की इस उदारता से विजयकेतु बहुत प्रभावित हुआ । उसने राजकुमार से अपने अपराध की क्षमा मांगी । राजकुमार ने उसे माफ कर दिया । दोनों प्रगाढ़ मित्र बन गये । प्रतापरथ राजकुमारी के साथ विजयकेतु के विमान में बैठकर कमलपुर पहुँचा । राजा और प्रजा ने राजकुमार का भव्य स्वागत किया । राजा ने बड़े उत्सव के साथ प्रतापरथ का राजकुमारी के साथ विवाह कर दिया । कुछ दिन कमलपुर में रह कर प्रतापरथ अपनी सेना, मित्रों एवं सामन्तों के साथ अरिष्टपुर पहुँचा । पिता ने उत्सवपूर्वक पुत्र का नगर में प्रवेश करवाया । पिता पुत्र दोनों ही सुखपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए राज्य का संचालन करने लगे । - एक बार राजा पद्मरथ अपने सामन्तों के साथ सिंहासन पर बैठा हुआ मंत्रियों के साथ विचार विमर्श कर रहा था । उस समय कुसुमपाल नामक उद्यानपालक ने आकर सूचना दी कि कलकोकिल नामक उद्यान में चित्ररक्ष नामके आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे हुए हैं । आचार्य का आगमन सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ । आचार्य के आगमन का समाचार लानेवाले उद्यानपालक को राजा ने सन्मानित किया और उसे योग्य पुरस्कार दे कर विदा किया । दूसरे दिन राजा विशाल परिवार के साथ उद्यान में धर्मोपदेश सुनने गया । आचार्यश्री ने अपने उपदेश में कहा - राजन् ! नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चारों गतियाँ दुःख रूप हैं । जो निरपराध जीवों को मारते हैं, शिकार करते हैं, परस्त्री गमन करते हैं, महारंभ और परिग्रह को धारण करते हैं वे जीव मरकर नरक में जाते हैं । वहाँ चिरकाल तक असह्य पीड़ा को सहन करते हैं । वहाँ से निकलकर वे जीव तिर्यंच आदि योनियों में अनन्तकाल तक परीभ्रमण करते हैं । मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, आर्यकुल और सद्धर्म की प्राप्ति अति दुर्लभ है । संसार में जो सुख दिख रहे हैं वे आभास मात्र हैं और भविष्य में दुःख के कारण हैं । जैसे शहद से लिपटी तलवार को चाटने में मधुरता का अनुभव
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