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________________ इन्होंने भक्तिपूर्वक अष्ट प्रकार की पूजा में से एक वस्तु से पूजन कर महान् ऋद्धि प्राप्त की और अन्त में प्रव्रज्या ग्रहण करके शिवपद को प्राप्त हुए ।। पूजा की महिमा और उन पर दिये गये दृष्टान्त को सुनकर राजा कदंबपरिमल ने त्रिकाल जिनपूजन कर अपने जीवन को सफल बनाया ।। विशाल परिवार के साथ भगवान ने वहाँ से विहार कर दिया और ग्रामानुग्राम विचरते हुए प्रभु द्वारिका पधारे वहाँ सहकारसार नामके उद्यान में ठहरे । भ्रमरसुन्दर नामके उद्यान पालक ने वासुदेव पुरुषोत्तम और बलदेव सुप्रभ को भगवान के आगमन की सूचना दी । वासुदेव और बलदेव तथा नगरी की प्रजा भगवान के समवसरण में पहुँची । भगवान ने विशाल परिषद् के सामने सम्यक्त्वपूर्वक बारह गृहस्थ धर्म का विवेचन किया । पश्चात् पुरुषोत्तम वासुदेव के सम्यक्दर्शन विषयक प्रश्न पूछने पर भगवान ने प्रतापसुन्दर राजा का दृष्टान्त देकर सम्यक्दर्शन की महिमा बताई। सम्यक्दर्शन की महिमा सुनकर वासुदेव पुरुषोत्तम ने भगवान से सम्यक्त्व ग्रहण किया और सुप्रभ ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये । कुछ काल तक भगवान द्वारिका नगरी में ही ठहरे । उसके पश्चात् भगवान ने अपने विशाल परिवार के साथ विहार कर दिया । प्रताप यक्ष और भिका यक्षणी आप के शासन में आनेवाले विघ्नों को दूर कर रही थी । भगवान मगध, अंग, बंग, कुंतल, केरल, कन्या लाड़, द्रविड़, राड़, चोड़, मेवाड़, मलय, पंचाल आदि देशों में धर्मोपदेश देते रहे । आपके संघ में ६६००० साधु, ६२००० साध्वियाँ ९१४ पूर्वधर, ४३०० अवधिज्ञानी ५००० मनःपर्यवज्ञानी, ५००० केवलज्ञानी, ८००० वैक्रियलब्धिधारी, ३२०० वादी, २,०६,००० श्रावक, एवं ४,१४००० श्राविकाएँ थी । केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भगवान तीन वर्ष कम साढ़े सात लाख वर्ष तक सयोगी केवली अवस्था में विचरण करते रहे । __ अपना निर्वाण का समय निकट जानकर भगवान साधुओं के साथ सम्मेतशैल शिखर पर पधारे और वहाँ एक महिने का अनशन ग्रहण किया । चैत्र शुक्ला पंचमी को जब चन्द्र पुष्प नक्षत्र में था तब ७००० मुनिओं के साथ प्रभु मोक्ष को प्राप्त हुए । शक्रादि इन्द्रों और देवों ने भगवान अनन्तनाथ और अन्य मुनियों का यथोचित अग्नि संस्कार किया । भगवान साढ़े सात लाख वर्ष तक कुमारावस्था में रहें । १५ लाख वर्ष तक राज्याधिपति के रूप में और साढ़े सात लाख वर्ष तक संयमपर्याय में रहे । उनकी कुल आयु ३० लाख पूर्व की थी। विमलनाथ स्वामी के निर्वाण से अनन्तनाथ प्रभु के निर्वाण पर्यन्त नौ सागरोपम व्यतीत हुए थे। (गाथा ९०७९-९५४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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