SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४३ अणंतजिणवण्णणं जं कणय-कलसमंडलअलंकियं रयणजणियगयसीहं । रणज्झणिरकिंकिणी-खलहलंतघरघरयधयमालं || १८०३ ॥ तस्संतो वज्जावलिमुत्तालीकलियकणयचउदंडा । कलहंस-रोममयतूलिया जुया विरइया सिज्जा ॥ १८०४ ॥ मझे विणयाऊसीसयूसिया उन्नया य पायंते । सरिपुलिणपवित्थारा, विलसिरगंडोवहाणा य ॥ १८०५ ॥ तो सो नहेण गंतुं, पणमिय जयबंधवं भणइ सामि ! । इह चंदसालिया कयदोला सिज्जाए वीसमह ॥ १८०६ ॥ तो सुरवइ-सेणावइ-भुयाविलग्गो नहेण भुवणगुरू । देवाणुभावओ तं सेज्जुच्छंगं समारूढो || १८०७ ॥ जगगुरुपत्ताएसा कीलं कुव्वंति निवइणो हिट्ठा ।। सामंतमंडलेसर-पउराईया वि सकलत्ता ॥ १८०८ ॥ एक्कं मणि-पयवीढे, बीयं तज्जाणए ठविय पायं । करकलियकेलिकमलो जणकीलं नियइ जयनाहो ॥ १८०९ ॥ तहाहि - के वि सहयारसीहा निबद्धमणिदंडदोलयारूढा । दुग्गयमणोरहा इव, कुणंति आरोहअवरोहे ॥ १८१० ॥ दोलावेगेण असोय-पल्लवे हणइ का वि पाएहिं । नियचरणअरुणया,तुलणगव्विए जायकोउ व्व ॥ १८११ ॥ वलियारएण पाडइ, पट्ठीए पहणिऊण तत्तरुणो । निग्गंथकुसुमथवए वरिएहिं किं इमेहिं ति ॥ १८१२ ॥ भूइकयधवलदेहा विडभासा हासकारिणो फरला । कित्तिमयकयटुडंगा, कत्थइ नच्चंति पेरणिया ॥ १८१३ ॥ वन्नब्भमि अब्भयभासिमल्लियाभरणरईयसिंगारा । वीणा-वेणुस्सरसियवसंतराएण गायंता |॥ १८१४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy