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________________ ११५ अणंतजिणजम्मवण्णणं पुप्फपब्भारउवहार-सुहकरणयं, तरणिमणिकिरणविप्फुरियतमहरणयं । मणिमयत्थंभयस्सेणिपविभत्तयं, रयणकयसालहंजीहिं संजुत्तयं ॥ १४४९ ॥ मत्तवारणयरेहंतमणिभत्तियं, मणिकरुल्लसियहरिचावचयचित्तियं । कणयकलकालिकंतीहिं दिपंतयं कणिरघंटाचउक्केण सोहंतयं ॥ १४५० ॥ (२) भुवणतयसुंदरु नियवि पुरंदर, तं विमाणु भासियगयणु । जिणपयजुयभत्तउ, सुरयणजुत्तउ, ठिओ पहरिसवियसियनयणु ॥ १४५१ ॥ तो वावीजलविरइयमज्जणु, सुरहिविलेवणकयतणुरंजणु । मउडकडयकेऊरालंकिङ, कुंडलहारकिरणचच्चंकिउ ॥ १४५२ ॥ अमरतरुणि वीयइ सियचामरु, वज्जप्पहरणु तिहुयणडामरु । तत्थारुहिवि भेयविजियासणि, निविसइ सक्कु रयणसीहासणि ॥ १४५३ ॥ (३) तह आरुहइ इंदअवरोहणु, निरुवमरूव कामिमणमोहणु । तह आरूढ इंद-सामाणिय, जे अणवरउ इंदि सम्माणिय ॥ १४५४ ॥ आयरक्खसुरवडिय महाबल करकयखग्गु धणुहसरसंबल । कयबत्तीसबद्धनाडयसुर, तत्थठ्ठिय मणिभूसणभासुर ॥ १४५५ ॥ सह सुरसमदि, गरुयविसर्पि, चलिउं सुरिंदु अउज्झउरि । जहिं अच्छइ जायउ जिणु विक्खायउ वंदिदाणलालसपउरि ॥ १४५६ ॥ तो चलिय केवि सुर ठिय विमाणि करिराए केवि गरुयप्पमाणि । मयराइ केवि केवि गुरुतुरंगि, जंपाणि केवि केवि हु कुरंगि || १४५७ ॥ सद्दलि केवि केवि गरुयसरहि, केवि हु वराहि अन्ने किंकरहि । अवरेक्कसुहासणि रयणजडिए, रहरयणि केवि मणिकणयघडिए || १४५८ ॥ इय जाणचडिय गच्छंति अमर, सियछत्तालंकिय चलिरचमर । धयविजयचिंध-चुंबियनहंत, अच्चब्भुयसिरिवित्थरमहंत ॥ १४५९ ॥ (४) सुरचारणजयजय रव सुणंत, अणवरउ जिणेसरगुण थुणंत । अच्छरगण पेच्छणय इंति इंत, जयतूरसद्दपूरियदियंत ।। १४६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001445
Book TitleAnanthnath Jina Chariyam
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorJitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages778
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, N000, & N001
File Size10 MB
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