SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना .. के अन्त्य लघु को गुरु नहीं माना क्योंकि उससे कोई सार हाथ नहीं आता। ऐसे छंदों की गणना संकीर्ण छंदों में की गई है। (iv) जिम पाद में पहिले से ही अपेक्षा से अधिक मात्राएं हैं तथा पादान्त लघु से है वहां उस लघु को गुरु नहीं माना है। उदाहरण के लिए सातवीं संधि के १ ले कडवक का पत्ता देखिए । यह एक चतुष्पदी छंद में है। इसके प्रथम पाद में १४ तथा तृतीय पाद में १२ मात्राएं हैं। तृतीय पाद का अंतगुरु है और प्रथम पाद का अन्त लघु से है । इस लघु को गुरु मानना व्यर्थ है। (v) पादान्त 'ए' तथा 'ओ' को गुरु माना है किंतु कुछ परिस्थितियों में ए और ओ को लघु भी मानना पड़ा है, यथाषट्पदियों के दूसरे तथा पांचवें पादों में सर्वत्र आठ मात्राएं हैं, इस कारण से जहाँ ए या ओ के गुरु मानने से हो जाती है वहां उस ओ को लघु माना है । उदाहरण के लिए पहिली संधि के सातवें तथा चौदहवीं संधि के २६ वें कडवकों के पत्तों के देखिए । जहाँ पादों का अन्त 'ए' या 'ओ' में हुआ है वहां यदि इनमें से एक को हस्व मानने से दोनों पादों की मात्राओं की संख्या समान हो जाती है तो उस ए या ओ को लघु माना है। उदाहरण के लिए तीसरी संधि के ७ वें कडवकके घत्ते को देखिए। (इ) चतुष्पदी घत्ते- जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है चतुष्पदी से आशय चार पादों वाले छंद से है । इन चार पादों में से किन्ही चतुष्पदियों के केवल पहले तथा तीसरे एवं दूसरे तथा चौथे पाद समान मात्रावाले हैं और किन्हीं के चारों पादों की मात्राओं की संख्या समान है । जिन चतुष्पदियों के पहिले तथा तीसरे एवं दूसरे तथा चौथे पाद समान हैं कि उनमें केवल आधे आधे भाग समान होते हैं अतः उन्हें अर्धसम चतुष्पदी और चूंकि उनके समान संख्या वाले पादों के बीच एक असमान संख्या वाला पाद आता है अतः इन्हें अन्तरसम चतुष्पदी नाम भी दिया गया है ( देखिए छं. शा. २८ ब २०)। जिन चतुष्पदियों के चारों पादों में मात्राओं की संख्या समान है वे सर्व सम कहलाती है तथा जिनके प्रथम तथा तृतीय या द्वितीय या चतुर्थ पादों की मात्रा संख्या असमान है उन्हे संकीर्ण चतुष्पदी कहा गया है। संकीर्ण चतुष्पदियां यथार्थ में प्रथम दो वर्गों की चतुष्पदियों के दो भिन्न छंदों की दो पृथक् पृथक् पंक्तियों के संयोजन से बनती हैं। अंतरसम चतुष्पदियों के निम्न प्रकार पासणाहचरिउ में प्राप्त हैं : (i) जिनके विषम पादों में १२ और समपादों में ११ मात्राएं हैं उनके विषम पादों में मात्रागणों की व्यवस्था एक षण्मात्रा गण, एक चतुर्मात्रा गण तथा एक द्विमात्रागण या तीन चतुर्मात्रागगों से की गई है-६+४+२ या ४+४+४ । इन पादों का अंत प्रायः दो लघुओं से हुआ है। इनके समपादों में मात्रागण व्यवस्था एक षण्मात्रागण, एक द्विमात्रागण तथा एक त्रिमात्रागण से या दो चतुर्मात्रागणों तथा एक त्रिमात्रागण से की गई है। इन पादों में अन्तिम गण सर्वत्र एक गुरु लघु से तथा जो द्विमात्रागण है वह प्रायः दो लघुओं से व्यक्त हुआ है ६+U+ - U या ४+४+ -U. स्वयंभू (स्व. छ. ६. ९७) तथा हेमचन्द्र (छ. शा. ४१ब २०) के अनुसार इस छंद का नाम मकरध्वजहास है । कविदर्पण ( २.१६) में इसे उपदोहक नाम दिया है । दूसरी संधि का ध्रुवक तथा १२ वें कडवक; तोसरी संधि के २, ७, चौथी संधि के ३, ६, १०, सातवीं संधि के ३, ८, ९ तथा तेरहवीं संधि के २, ९, १०, १४, १५, १८ और १९ वें कडवकों के पत्ते इस छंद में हैं। (ii) जिनके विषम पादों में १३ तथा सम पादों में ११ मात्राएं हैं, उनके समपादों में मात्रागणों की व्यवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy