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________________ ७८ प्रस्तावना मत्ता के पादों में मात्रागणों की व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं किया । स्वयंभू तथा हेमचन्द्र ने मत्ता के छह छह भेद बताए हैं । इन दोनों छन्दशास्त्रियों द्वाग दिए गए मत्ता के लक्षण तथा नाम समान हैं। इन छह प्रकारों में से प्रथम के विषम पादों में १६ तथा समपादों में १२ मात्राएं होती हैं। विषम पादों में मात्रागणों की व्यवस्था दो पंचमात्रागण एक चर्तुमात्रागण तथा एक द्विमात्रागण से (५+५+४+२) तथा समपादों में तीन चर्तुमात्रागणों (४+४+४) से की गई है। इस मत्ता के समपादों में एक मात्रा की वृद्धि से मत्तबालिका की तथा एक मात्रा की कभी से मत्तमधुकरी नामक मत्ताओं की प्राप्ति होती है। उसी मात्रा छंद के तृतीय तथा पंचम पादों के दोनों पंचमात्रागणों के स्थान में दो चार्तुमात्रागण रखने से अर्थात् दो मात्राओं की कमी से मत्तविलासिनी तथा केवल एक पंचमात्रागण के स्थान पर एक चतुर्मात्रागण के उपयोग से अर्थात् एक ही मात्रा की कमी से मत्तकरिणी नामक मत्ताओं की प्राप्ती होती है। इन पांच प्रकाके के मत्ताओं के विभिन्न पादों का एक साथ उपयोग करने से बहुरूपा नामक मत्ता छंद बनता है । प्राकृत पैङ्गलम् में जिसके विषमपादों में १३ तथा समपादों में ११ मात्राएं हो उसे करही, जिसके विषम पादों में १४ तथा समपादों में ११ मात्राएं हो उसे नन्दा जिसके विषम पादों में १९ तथा समपादों में ११ मात्राएं हों उसे मोहिनी, जिसके विषमपादों में १५ तथा समपादों में ११ मात्राएं हो उसे चारुसेना, जिसके विषम पादों में १५ तथा समपादों में १२ मात्राएं हों उसे भद्रा, जिसके विषम पादों में १५ तथा द्वितीय पाद में १२ एवं चतुर्थ पाद में ११ मात्राएं हों उसे राजसेना तथा जिसके विषम पादों में १६ तथा समपादों में क्रमशः १२ और ११ मात्राएं हों उसे तालंकिनी नाम दिया है। छंद कोश में एक ही प्रकार के मत्ता का उल्लेख है। उसके विषम पादों में १५ तथा समपादों में ११ मात्राएं रहती हैं । कविदर्पण में भी एक ही प्रकार के मत्ता के लक्षण बतलाए है, जो छंदकोश में किए गए मत्ता के समान है, साथ ही उसमें मत्ता के अनेक प्रकार के होने का भी उल्लेख है- मत्ता पउर-भेया । भिन्न भिन्न छन्दग्रन्थों में बताए गए मत्ता के भेदों पर दृष्टिपात कर जब हम पा. च. में प्रयुक्त मत्ता को देखते हैं तो यह पाते हैं कि पा. च. में प्रयुक्त मत्ता छंद उन सबसे भिन्न है । पा. च. में मत्ता छंद केवल ग्यारहवी संधि में प्रयुक्त हुआ है वह भी प्रत्येक कडवक में केवल एक बार, अतः उसके केवल १३ उदाहरण हमें यहाँ प्राप्त हैं। इन तेरह में भी छठवें, सातवें और नौवें कडवकों के मत्ता भिन्न भिन्न प्रकार के तथा शेष दस कडवकों के एक भिन्न प्रकार के । इन दस कडवकों के पहिले, तीसरे तथा पांचवे पादों में १५, दूसरे में ११, तथा चौथे में १३ मात्राएं हैं । इनमें मात्रागणों की व्यवस्था इस प्रकार की है (i) प्रथम पाद में तीन पंचमात्रागग हैं (५+५+५) इनमें से अंतिम गण एक तगण ( - - U) द्वारा व्यक्त हुआ है, अपवाद केवल आठवें तथा नौवें कडवकों के मत्ता हैं जिनमें अंतिमगण दो लघु, एक गुरु तथा एक लघु द्वारा व्यक्त हुआ है (५+५+ - - ( या UU -U )। (i) तीसरे तथा पांचवें पादों में एक त्रिमात्रागण एक पंचमात्रागण, एक त्रिमात्रागण तथा एक चतुर्मात्रागण आए हैं (३+५+३+४) । इनमें से अंतिम गण एक भगण (- UU ) से व्यक्त हुआ है । तीसरा गग भी एक नगण (UUU ) से या एक गुरु और एक लघु (-- U ) से व्यक्त किया गया है ३+५+ UUU (या - U) + - UU । १. छं. को ३४. २. क. द. २. २७-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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