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________________ प्रस्तावना इस समस्त वर्णन में प्रतिनायक की वीरता, धीरता तथा रणचातुरी जितनी प्रकाश में आई है उतनी नायक पार्श्वनाथ की नहीं। संभवतः कविने काव्यादर्श के उस सुझाव को ग्रहण किया है जिसके अनुसार प्रतिनायक का गुणानुवाद कर उसे नायक द्वारा परास्त कराने से प्रतिनायक की अपेक्षा नायक की श्रेष्ठता अभिव्यञ्जना द्वारा सिद्ध करना प्रकृतिसुन्दर मार्ग बताया गया है।' ____ इस युद्ध-वर्णन में त्रिशूल, तोमर, अर्धेन्दुबाण, वावल्ल, भल्ल, कुंत,क्षुरप्र, करवाल, रेवंगि, चित्रदण्ड, मुद्गर घन, पट्टिस सव्वल, चाप, शक्ति, असिपत्र, चक्र, नाराच, कनक, झस, मुसंदि, कोदंड, गदा आदि अस्त्र शस्त्रो के साथ अग्निबाण, वायव्य बाण, नागबाण, गरुडबाण, गजेन्द्रास्त्र, सिंहास्त्र, वरुणास्त्र, तमास्त्र, दिवाकरास्त्र, पर्वतास्त्र तथा वज्रास्त्र के उपयोग में लिए जाने का उल्लेख भी किया गया है। रस तथा अलंकार : पा. च. का प्रधान रस शांत है । ग्यारहवीं और बारहवीं संधियों को छोड़ शेष में से प्रत्येक संधि में मुनि की शांत तपस्या, आत्मोत्सर्ग का उपदेश, तथा मुनि और श्रावकों के शुद्ध चरित्रों का विस्तृत वर्णन है । अनेक स्थानों पर संसार की अनित्यता तथा जीवन की क्षण-भंगुरता दिखाकर विराग की उत्पत्ति कराई गई है। ग्रन्थ की अंतिम चार संधियों में पार्श्वनाथ की पवित्र जीवनचर्या एवं ज्ञानमय उपदेशों से केवल शांतरस की ही निष्पत्ति हुई । स्पष्ट है कि कवि को शान्त ही काव्य एवं जीवन का पर्यवसान अभीष्ट था । शान्तरस की सर्वोत्कृष्ट निष्पत्ति पार्श्व की तपस्या के वर्णन में हुई है समसत्तुमित्तु समरोसतोसु । कंचणमणि पेक्खइ धूलिसरिसु ॥ समसरिसउ पेक्खइ दुक्खु सोक्खु । वंदिउ णरवर पर गणइ मोक्सु ॥ १४. ३. आदि शांतरस के पश्चात् वीर रस की प्रधानता है । युद्ध वर्णन में स्थान स्थान पर-तूरहँ सद्द सुणेवि महाभड, धावंति समच्छर बद्धकोह, भिडिउ सदप्पु, जीविउ रणि मेल्लति, आदि उक्तियां बारंबार वीर रस का आस्वादन कराती हैं। इस रस का सर्वोत्कृष्ण उदाहरण पार्श्व की उस उक्ति में है जब उन्होंने अपने पिता से युद्ध में जाने की अनुमति मांगी किन्तु पिताने बालक कहकर उन्हें टालना चाहा । इस पर पार्क का पौरुष प्रदीप्त हो उठा और उसकी अभिव्यक्ति इन शब्दों में हुई-- किं बालहो पउरिसु जसु ण होइ । किं बालहो हयहो ण रुहिरु एइ । किं बालहुआसणु दहइ णाहि । किं बालहो रिउ रणे खउ ण जाहि ।। माणुसहो हयासहो कवणु गहणु । सुर असुर जिणमि जइ करमि समणु ॥ १०. ३. २-८. इस काव्य में करुण रस को धारा भी प्रवाहित हुई है। पार्श्व द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के समाचार से वामादेवी, हयसेन तथा प्रभावतो के हृदयों को शोक-शंकु ने इस प्रकार विदारित किया कि उससे समस्त वातावरण ही करुणामय हो उठा। इसी प्रकार से शक्रवर्मा द्वारा ली गई दीक्षा के समाचार से हयसेन का दुखी होकर सभा-भवन को आंसुओं से परिभावित करने में भी करुण रस की अभिव्यक्ति हुई है। इन दो रसों के अतिरिक्त ग्रन्थ में जहां तहां शृङ्गार, रौद्र, भयानर्क, तथा बीभत्से रसों का भी सहायक रसों के रूप में छिडकाव हुआ है । हास्य रस का केवल एक उदाहरण है । कवि ने भारत में सदा से उपेक्षित बेचारे गधे पर व्यंग्य किया है। १. काव्यादर्श १.२१. २. इन शस्त्र-अस्त्रों की विशेष जानकारी के लिये देखिए टिप्पणियां पृष्ट २१७. ३. पा. च. १२.९ । ४. पा. च. १३. १५ से २०. ५. वही ९ ८.६ वही १. १२. ६-१२. ७. वही ९. ११. ६-७ तथा. ९. १३. ८ वही १२.. ९. वही ११.१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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